अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 21
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - आर्षी निचृद्गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
यं त्वा॒ पृष॑ती॒ रथे॒ प्रष्टि॒र्वह॑ति रोहित। शु॒भा या॑सि रि॒णन्न॒पः ॥
स्वर सहित पद पाठयम. । त्वा॒ । पृष॑ती । रथे॑ । प्रष्टि॑: । वह॑ति । रो॒हि॒त॒ । शु॒भा । या॒सि॒ । रि॒णन् । अ॒प: ॥१.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
यं त्वा पृषती रथे प्रष्टिर्वहति रोहित। शुभा यासि रिणन्नपः ॥
स्वर रहित पद पाठयम. । त्वा । पृषती । रथे । प्रष्टि: । वहति । रोहित । शुभा । यासि । रिणन् । अप: ॥१.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 21
विषय - जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ -
(रोहित) हे सबके उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर !] (यम् त्वा) जिस तुझको (प्रष्टिः) प्रश्नयोग्य (पृषती) सींचनेवाली [प्रकृति] (रथे) रमणयोग्य [संसार] में (वहति) प्राप्त होती है। वह तू (अपः) प्रजाओं को (शुभा) शोभा के साथ (रिणन्) चलता हुआ (यासि) चलता है ॥२१॥
भावार्थ - खोजने से विवेकी लोग निश्चय करते हैं कि सर्वव्यापक, सर्वनियन्ता परमेश्वर के सामर्थ्य से असीम प्रकृति में संयोग-वियोग होने से संसार का प्रादुर्भाव होता है ॥२१॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-म० ८।७।२८ ॥
टिप्पणी -
२१−(यम्) (त्वा) परमेश्वरम् (पृषती) वर्त्तमाने पृषद्बृहन्मह०। उ० २।८४। पृषु सेचने-अति, ङीप्। सेचनशीला प्रकृतिः (रथे) अ० ४।१२।६। रमणीये संसारे (प्रष्टिः) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्-ति प्रष्टव्या (वहति) प्राप्नोति (रोहित) हे सर्वोत्पादक परमेश्वर (शुभा) शोभया (यासि) गच्छसि। प्राप्नोषि (रिणन्) रि हिंसायां गतौ च-शतृ। गमयन् (अपः) प्रजाः ॥