अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - पञ्चपदा परशाक्वराभुरिक्ककुम्मत्यतिजगती
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
वाच॑स्पत ऋ॒तवः॒ पञ्च॒ ये नौ॑ वैश्वकर्म॒णाः परि॒ ये सं॑बभू॒वुः। इ॒हैव प्रा॒णः स॒ख्ये नो॑ अस्तु॒ तं त्वा॑ परमेष्ठि॒न्परि॒ रोहि॑त॒ आयु॑षा॒ वर्च॑सा दधातु ॥
स्वर सहित पद पाठप॒ते॒ । ऋ॒तव॑: । पञ्च॑ । ये । नौ॒ । वै॒श्व॒ऽक॒र्म॒णा । परि॑ । ये । स॒म्ऽब॒भू॒वु: । परि॑। रोहि॑त: । आयु॑षा । वर्च॑सा । द॒धा॒तु॒ ॥१.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
वाचस्पत ऋतवः पञ्च ये नौ वैश्वकर्मणाः परि ये संबभूवुः। इहैव प्राणः सख्ये नो अस्तु तं त्वा परमेष्ठिन्परि रोहित आयुषा वर्चसा दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठपते । ऋतव: । पञ्च । ये । नौ । वैश्वऽकर्मणा । परि । ये । सम्ऽबभूवु: । परि। रोहित: । आयुषा । वर्चसा । दधातु ॥१.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 18
विषय - जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ -
(वाचः पते) हे वेदवाणी के स्वामी [परमेश्वर !] (ये ये) जो ही (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश पाँच तत्त्वों से सम्बन्धवाले वसन्त आदि छह] (ऋतवः) ऋतुएँ (नौ) हम दोनों [स्त्री-पुरुष] के लिये (वैश्वकर्मणाः) सब कर्मों के हितकारी (परि) सब ओर से (संबभूवुः) प्राप्त हुए हैं। (इह एव) यहाँ ही [इसी मनुष्यजन्म में] (प्राणः) प्राण [जीवनवायु] (नः) हमारी (सख्ये) मित्रता में (अस्तु) होवे, (परमेष्ठिन्) हे बड़े ऊँचे पदवाले [परमेश्वर !] (तम् त्वा) उस तुझको (रोहितः) उत्पन्न हुआ [यह मनुष्य] (आयुषा) आयु के साथ और (वर्चसा) प्रताप के साथ (परि) सब ओर से (दधातु) धारण करे ॥१८॥
भावार्थ - जो मनुष्य वसन्त आदि छह ऋतुओं को पृथिवी आदि पाँच तत्त्वों के साथ उपयोगी बनाते हैं, वे परमात्मा के गुणों को जानकर अपने जीवनभर स्वस्थ और प्रतापी रह कर उन्नति करते हैं ॥१८॥
टिप्पणी -
१८−स्त्रीपुरुषाभ्याम् (वैश्वकर्मणाः) विश्वकर्मन्-अण्। सर्वकर्मभ्यो हिताः। (परि) सर्वतः (सम्बभूवुः) प्राप्ता बभूवुः (रोहितः) म० १। रुह प्रादुर्भावे-इतन्। उत्पन्नो मनुष्यः। अन्यत् पूर्ववत् म० १७ ॥