Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 32
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    उ॒द्यंस्त्वं दे॑व सूर्य स॒पत्ना॒नव॑ मे जहि। अवै॑ना॒नश्म॑ना जहि॒ ते य॑न्त्वध॒मं तमः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽयन् । त्वम् । दे॒व॒ । सू॒र्य॒ । स॒ऽपत्ना॑न् । अव॑ । मे॒ । ज॒हि॒ । अव॑ । ए॒ना॒न् । अश्म॑ना । ज॒हि॒ । ते॒ । य॒न्तु॒ । अ॒ध॒मम् । तम॑: ॥१.३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्यंस्त्वं देव सूर्य सपत्नानव मे जहि। अवैनानश्मना जहि ते यन्त्वधमं तमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽयन् । त्वम् । देव । सूर्य । सऽपत्नान् । अव । मे । जहि । अव । एनान् । अश्मना । जहि । ते । यन्तु । अधमम् । तम: ॥१.३२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 32

    पदार्थ -
    (देव) हे विजय चाहनेवाले ! (सूर्य) हे सर्वप्रेरक राजन् ! (उद्यन् त्वम्) ऊँचा चढ़ता हुआ तू (मे) मेरे (सपत्नान्) वैरियों को (अव जहि) मार गिरा। (एनान्) इन [शत्रुओं] को (अश्मना) पत्थर [आदि गिराने] से (अव जहि) मार गिरा, (ते) वे लोग (अधमम्) बड़े नीचे (तमः) अन्धकार में (यन्तु) जावें ॥३२॥

    भावार्थ - राजा को योग्य है कि न्यायव्यवहार में प्रकाशमान होकर शत्रुओं को यथापराध दण्ड देकर कारागार में पीड़ा देवें ॥३२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top