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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 36
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - निचृन्महाबृहती सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    उत्त्वा॑ य॒ज्ञा ब्रह्म॑पूता वहन्त्यध्व॒गतो॒ हर॑यस्त्वा वहन्ति। ति॒रः स॑मु॒द्रमति॑ रोचसेऽर्ण॒वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । त्वा॒ । य॒ज्ञा: । ब्रह्म॑ऽपूता: । व॒ह॒न्ति॒ । अ॒ध्व॒ऽगत॑: । हर॑य: । त्वा॒ । व॒ह॒न्ति॒ । ति॒र: । स॒मु॒द्रम् । अति॑ । रो॒च॒से॒ । अ॒र्ण॒वम् ॥१.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्त्वा यज्ञा ब्रह्मपूता वहन्त्यध्वगतो हरयस्त्वा वहन्ति। तिरः समुद्रमति रोचसेऽर्णवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । त्वा । यज्ञा: । ब्रह्मऽपूता: । वहन्ति । अध्वऽगत: । हरय: । त्वा । वहन्ति । तिर: । समुद्रम् । अति । रोचसे । अर्णवम् ॥१.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 36

    पदार्थ -
    [हे परमेश्वर !] (त्वा) तुझको (ब्रह्मपूताः) ब्रह्माओं [वेदवेत्ताओं] द्वारा शुद्ध किये गये (यज्ञाः) यज्ञ [संगतियोग्य व्यवहार] (उत्) उत्तमता से (वहन्ति) प्राप्त होते हैं, (अध्वगतः) [वेदविहित] मार्ग पर चलनेवाले (हरयः) मनुष्य (त्वा) तुझको (वहन्ति) पाते हैं। (अर्णवम्) जल से भरे (समुद्रम्) समुद्र को (तिरः) तिरस्कार करके तू (अति) अत्यन्त करके (रोचसे) प्रकाशमान होता है ॥३६॥

    भावार्थ - परमेश्वर में सब पदार्थ व्याप्त हैं, वेदानुयायी पुरुष बहुत खोज कर अगम्य स्थानों में भी पाकर आनन्दित होते हैं ॥३६॥

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