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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 40
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    दे॒वो दे॒वान्म॑र्चयस्य॒न्तश्च॑रस्यर्ण॒वे। स॑मा॒नम॒ग्निमि॑न्धते॒ तं वि॑दुः क॒वयः॒ परे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒व: । दे॒वान् । म॒र्च॒य॒सि॒ । अ॒न्त: । च॒र॒सि॒ । अ॒र्ण॒वे । स॒मा॒नम् । अ॒ग्निम् । इ॒न्ध॒ते॒ । तम् । वि॒दु॒: । क॒वय॑: । परे॑ ॥१.४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवो देवान्मर्चयस्यन्तश्चरस्यर्णवे। समानमग्निमिन्धते तं विदुः कवयः परे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देव: । देवान् । मर्चयसि । अन्त: । चरसि । अर्णवे । समानम् । अग्निम् । इन्धते । तम् । विदु: । कवय: । परे ॥१.४०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 40

    पदार्थ -
    [हे परमेश्वर !] (देवः) विद्वान् तू (देवान्) उत्तम गुणों को (मर्चयसि) बतलाता है, (अर्णवे अन्तः) समुद्र [संसार] के बीच (चरसि) तू विचरता है। (समानम्) समान [एकरस] (तम्) उस (अग्निम्) ज्ञानवान् [परमेश्वर] को (परे) बड़े (कवयः) बुद्धिमान् लोग (विदुः) जानते हैं और (इन्धते) प्रकाशित होते हैं ॥४०॥

    भावार्थ - जो परमेश्वर संसार में व्यापक रहकर सदा शुभ गुणों का उपदेश करता है, बुद्धिमान् लोग उसी का उपदेश करके संसार में यश पावें ॥४०॥

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