Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 29
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    हन्त्वे॑ना॒न्प्र द॑ह॒त्वरि॒र्यो नः॑ पृत॒न्यति॑। क्र॒व्यादा॒ग्निना॑ व॒यं स॒पत्ना॒न्प्र द॑हामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हन्तु॑ । ए॒ना॒न् । प्र । द॒ह॒तु॒ । अरि॑: । य: । न॒: । पृ॒त॒न्यत‍ि॑ । क्र॒व्य॒ऽअदा॑ । अ॒ग्निना॑ । व॒यम् । स॒ऽपत्ना॑न् । प्र । द॒हा॒म॒सि॒ ॥१.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हन्त्वेनान्प्र दहत्वरिर्यो नः पृतन्यति। क्रव्यादाग्निना वयं सपत्नान्प्र दहामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हन्तु । एनान् । प्र । दहतु । अरि: । य: । न: । पृतन्यत‍ि । क्रव्यऽअदा । अग्निना । वयम् । सऽपत्नान् । प्र । दहामसि ॥१.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 29

    पदार्थ -
    वह [शूर पुरुष] (एनान्=एनम्) उसको (हन्तु) मारे, (प्र दहतु) जला देवे, (यः अरिः) जो वैरी (नः) हम पर (पृतन्यति) सेना चढ़ाता है। (क्रव्यादा) मांसभक्षक [मृतकदाहक] (अग्निना) अग्नि से [जैसे, वैसे] (वयम्) हम (सपत्नान्) वैरियों को (प्र दहामसि) जलाये देते हैं ॥२९॥

    भावार्थ - ज्ञानवान् शूर पुरुष अपने शत्रु दोषों को इस प्रकार भस्म कर दे, जैसे अग्नि से मृतक शरीर भस्म किया जाता है। यह ईश्वरनियम सब मनुष्यों को मानना चाहिये ॥२९॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top