अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 37
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - परशाक्वरा विराडतिजगती
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
रोहि॑ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी अधि॑ श्रि॒ते व॑सु॒जिति॑ गो॒जिति॑ संधना॒जिति॑। स॒हस्रं॒ यस्य॒ जनि॑मानि स॒प्त च॑ वो॒चेयं॑ ते॒ नाभिं॒ भुव॑न॒स्याधि॑ म॒ज्मनि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठरोहि॑ते । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अधि॑ । श्रि॒ते इति॑ । व॒सु॒ऽजिति॑ । गो॒ऽजिति॑ । सं॒ध॒न॒ऽजिति॑ । स॒हस्र॑म् । यस्य॑ । जनि॑मानि । स॒प्त । च॒ । वोचेय॑म् । ते॒ । नाभि॑म् । भुव॑नस्य । अधि॑ । म॒ज्मनि॑ ॥१.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
रोहिते द्यावापृथिवी अधि श्रिते वसुजिति गोजिति संधनाजिति। सहस्रं यस्य जनिमानि सप्त च वोचेयं ते नाभिं भुवनस्याधि मज्मनि ॥
स्वर रहित पद पाठरोहिते । द्यावापृथिवी इति । अधि । श्रिते इति । वसुऽजिति । गोऽजिति । संधनऽजिति । सहस्रम् । यस्य । जनिमानि । सप्त । च । वोचेयम् । ते । नाभिम् । भुवनस्य । अधि । मज्मनि ॥१.३७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 37
विषय - जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ -
(वसुजिति) निवासस्थानों के जीतनेवाले (गोजिति) विद्याओं के जीतनेवाले (संधनाजिति) संपूर्ण धन के जीतनेवाले (रोहिते) सबके उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] में (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी (अधि) अधिकारपूर्वक (श्रिते) ठहरे हुए हैं। (यस्य) जिस [परमेश्वर] के (सहस्रम्) सहस्र [असंख्य] (जनिमानि) उत्पन्न करने के कर्म (च) निश्चय करके (सप्त) सात [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] के साथ हैं, [हे परमेश्वर !] (ते) तेरे (नाभिम्) सम्बन्ध को (भुवनस्य) संसार के (मज्मनि) बल के भीतर (अधि) अधिकारपूर्वक (वोचेयम्) मैं बतलाऊँ ॥३७॥
भावार्थ - वह सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर सब लोकों का स्वामी है, उसने शरीरों को इन्द्रियों सहित बनाया है, उसी को जितेन्द्रिय योगी जन प्राप्त होकर सुखी होते हैं ॥३७॥इस मन्त्र का अन्तिम पाद ऊपर मन्त्र १४ में आया है ॥
टिप्पणी -
३७−(रोहिते) म० १। (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी (अधि) अधिकृत्य (श्रिते) आश्रिते (वसुजिति) निवासानां जेतरि (गोजिति) विद्यानां जेतरि (संधनाजिति) सांहितिको दीर्घः। समस्तधनानां प्रापके (सहस्रम्) बहूनि। असंख्यानि (जनिमानि) प्रजननकर्माणि (सप्त) सप्तभिस्त्वक्चक्षुःश्रोत्ररसनाघ्राणमनोबुद्धिभिः सह (च) निश्चयेन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १४ ॥