अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 49
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
ब्रह्म॑णा॒ग्नी वा॑वृधा॒नौ ब्रह्म॑वृद्धौ॒ ब्रह्मा॑हुतौ। ब्रह्मे॑द्धाव॒ग्नी ई॑जाते॒ रोहि॑तस्य स्व॒र्विदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑णा । अ॒ग्नी इति॑ । व॒वृ॒धा॒नौ । ब्रह्म॑ऽवृध्दौ । ब्रह्म॑ऽआहुतौ । ब्रह्म॑ऽइध्दौ । अ॒ग्नी इति॑ । ई॒जा॒ते॒ इति॑ । रोहि॑तस्य । स्व॒:ऽविद॑: ॥१.४९॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मणाग्नी वावृधानौ ब्रह्मवृद्धौ ब्रह्माहुतौ। ब्रह्मेद्धावग्नी ईजाते रोहितस्य स्वर्विदः ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मणा । अग्नी इति । ववृधानौ । ब्रह्मऽवृध्दौ । ब्रह्मऽआहुतौ । ब्रह्मऽइध्दौ । अग्नी इति । ईजाते इति । रोहितस्य । स्व:ऽविद: ॥१.४९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 49
विषय - जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ -
(अग्नी) दोनों अग्नि [सूर्य और चन्द्रमा] (ब्रह्मणा) वेदज्ञान द्वारा (वावृधानौ) बढ़ते हुए, (ब्रह्मवृद्धौ) अन्न से बढ़े हुए, (ब्रह्माहुतौ) जल की आहुति [ग्रहण और दान] वाले हैं। (ब्रह्मेद्धौ) धन के साथ प्रकाश किये गये (अग्नी) उन दोनों अग्नियों ने (स्वर्विदः) सुख पहुँचानेवाले (रोहितस्य) सबके उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर के लिये (ईजाते) यज्ञ [संयोग-वियोग व्यवहार] को किया है ॥४९॥
भावार्थ - ईश्वर की शक्ति से यह सूर्य और चन्द्रमा प्राणियों के लिये अन्न, वृष्टि और धन के कारण होते हैं ॥४९॥
टिप्पणी -
४९−(ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (अग्नी) सूर्याचन्द्रमसौ (वावृधानौ) वर्धमानौ (ब्रह्मवृद्धौ) ब्रह्माऽन्ननाम-निघ० २।७। अन्नेन प्रवृद्धौ (ब्रह्माहुतौ) ब्रह्मोदकनाम-निघ० १।१२। जलस्याहुतग्रहणदानव्यवहारो ययोस्तौ (ब्रह्मेद्धौ) ब्रह्म धननाम-निघ० २।१०। धनेन प्रकाशितौ। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४७ ॥