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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 47
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    हि॒मं घ्रं॒सं चा॒धाय॒ यूपा॑न्कृ॒त्वा पर्व॑तान्। व॒र्षाज्या॑व॒ग्नी ई॑जाते॒ रोहि॑तस्य स्व॒र्विदः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒मम । घ्रं॒सम् । च॒ । आ॒ऽधाय॑ । यूपा॑न् । कृ॒त्वा । पर्व॑तान् । व॒र्षऽआ॑ज्यौ । अ॒ग्नी इति॑ । ई॒जा॒ते॒ इति॑ । रोहि॑तस्य । स्व॒:ऽविद॑: ॥१.४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिमं घ्रंसं चाधाय यूपान्कृत्वा पर्वतान्। वर्षाज्यावग्नी ईजाते रोहितस्य स्वर्विदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिमम । घ्रंसम् । च । आऽधाय । यूपान् । कृत्वा । पर्वतान् । वर्षऽआज्यौ । अग्नी इति । ईजाते इति । रोहितस्य । स्व:ऽविद: ॥१.४७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 47

    पदार्थ -
    (हिमम्) शीत (च) और (घ्रंसम्) ताप को (आधाय) स्थापित करके, (पर्वतान्) पर्वतों को (यूपान्) जयस्तम्भ रूप (कृत्वा) बनाकर, (वर्षाज्यौ) वृष्टि को घी रूप रखनेवाले (अग्नी) दोनों अग्नियों [सूर्य और चन्द्रमा] ने (स्वर्विदः) सुख पहुँचानेवाले (रोहितस्य) सबके उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर के लिये (ईजाते) यज्ञ [संयोग-वियोग व्यवहार] को किया है ॥४७॥

    भावार्थ - परमेश्वर के सामर्थ्य से सूर्य चन्द्र आदि लोक नियमित होकर ताप, शीत, वृष्टि, पर्वत आदि की उत्पत्ति और स्थिति के कारण होते हैं ॥४७॥

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