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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 53
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    व॒र्षमाज्यं॑ घ्रं॒सो अ॒ग्निर्वेदि॒र्भूमि॑रकल्पत। तत्रै॒तान्पर्व॑तान॒ग्निर्गी॒र्भिरू॒र्ध्वाँ अ॑कल्पयत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒र्षम् । आज्य॑म् । घ्रं॒स: । अ॒ग्नि: । वेदि॑: । भूमि॑: । अ॒क॒ल्प॒त॒ । तत्र॑ । ए॒तान् । पर्व॑तान् । अ॒ग्नि: । गी॒:ऽभि: ऊ॒र्ध्वान् । अ॒क॒ल्प॒य॒त् ॥१.५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वर्षमाज्यं घ्रंसो अग्निर्वेदिर्भूमिरकल्पत। तत्रैतान्पर्वतानग्निर्गीर्भिरूर्ध्वाँ अकल्पयत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वर्षम् । आज्यम् । घ्रंस: । अग्नि: । वेदि: । भूमि: । अकल्पत । तत्र । एतान् । पर्वतान् । अग्नि: । गी:ऽभि: ऊर्ध्वान् । अकल्पयत् ॥१.५३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 53

    पदार्थ -
    (वर्षम्) वृष्टि (आज्यम्) घीरूप, (घ्रंसः) ताप (अग्निः) अग्निरूप, (भूमिः) भूमि (वेदिः) वेदिरूप (अकल्पत) बनाई गयी। (तत्र) उस [भूमि] पर (एतान् पर्वतान्) इन पर्वतों का (अग्निः) तेजःस्वरूप [परमेश्वर वा पार्थिव ताप] ने (गीर्भिः) वेदवाणियों द्वारा (ऊर्ध्वान्) ऊँचा (अकल्पयत्) बनाया ॥५३॥

    भावार्थ - जैसे यज्ञ के लिये घृत आदि हव्य पदार्थ होते हैं, वैसे ही वृष्टि आदि बनाकर प्राणियों के सुख के लिये पार्थिव ताप द्वारा ईश्वरनियम से पहाड़ बने हैं ॥५३॥

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