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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 44
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - परोष्णिक् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    वेद॒ तत्ते॑ अमर्त्य॒ यत्त॑ आ॒क्रम॑णं दि॒वि। यत्ते॑ स॒धस्थं॑ पर॒मे व्योमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेद॑ । तत् । ते॒ । अ॒म॒र्त्य॒ । यत् । ते॒ । आ॒ऽक्रम॑णम् । दि॒वि । यत् । ते॒ । स॒धऽस्थ॑म् । प॒र॒मे । व‍िऽओ॑मन् ॥१.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेद तत्ते अमर्त्य यत्त आक्रमणं दिवि। यत्ते सधस्थं परमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वेद । तत् । ते । अमर्त्य । यत् । ते । आऽक्रमणम् । दिवि । यत् । ते । सधऽस्थम् । परमे । व‍िऽओमन् ॥१.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 44

    पदार्थ -
    (अमर्त्य) हे अमर ! [अविनाशी परमेश्वर] (ते) तेरे (तत्) उस को (वेद) मैं जानता हूँ, (यत्) जो (ते) तेरा (आक्रमणम्) चढ़ाव [व्याप्ति] (दिवि) प्रत्येक व्यवहार में है और (यत्) जो (ते) तेरा (सधस्थम्) सह स्थान (परमे) सबसे बड़े (व्योमन्) विविध रक्षासाधन [मोक्ष पद] में है ॥४४॥

    भावार्थ - योगी को योग्य है कि उस नित्य शुद्ध परमात्मा को प्रत्येक पदार्थ में साक्षात् करके मोक्षसुख प्राप्त करे ॥४४॥

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