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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 43
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - विराण्महाबृहती सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    आ॒रोह॒न्द्याम॒मृतः॒ प्राव॑ मे॒ वचः॑। उत्त्वा॑ य॒ज्ञा ब्रह्म॑पूता वहन्त्यध्व॒गतो॒ हर॑यस्त्वा वहन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽरोह॑न् । द्याम् । अ॒मृत॑: । प्र । अ॒व॒ । मे॒ । वच॑: । उत् । त्वा॒ । य॒ज्ञा: । ब्रह्म॑ऽपूता: । व॒ह॒न्ति॒ । अ॒ध्व॒ऽगत॑: । हर॑य: । त्वा॒ । व॒ह॒न्ति॒ ॥१.४३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आरोहन्द्याममृतः प्राव मे वचः। उत्त्वा यज्ञा ब्रह्मपूता वहन्त्यध्वगतो हरयस्त्वा वहन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽरोहन् । द्याम् । अमृत: । प्र । अव । मे । वच: । उत् । त्वा । यज्ञा: । ब्रह्मऽपूता: । वहन्ति । अध्वऽगत: । हरय: । त्वा । वहन्ति ॥१.४३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 43

    पदार्थ -
    (द्याम्) प्रकाश के ऊपर (आरोहन्) चढ़ता हुआ (अमृतः) अमर तू (मे वचः) मेरे वचन को (प्र) भले प्रकार (अव) सुन। [हे परमेश्वर !] (त्वा) तुझको (ब्रह्मपूताः) ब्रह्माओं [वेदवेत्ताओं] द्वारा शुद्ध किये गये (यज्ञाः) यज्ञ [संगतियोग्य व्यवहार] (उत्) उत्तमता से (वहन्ति) प्राप्त होते हैं, (अध्वगतः) [वेदविहित] मार्ग पर चलनेवाले (हरयः) मनुष्य (त्वा) तुझको (वहन्ति) पाते हैं ॥४३॥

    भावार्थ - योगी जन प्रकाशस्वरूप जगदीश्वर का ध्यान करके तपश्चरण के साथ उसे प्राप्त करके आनन्द पाते हैं ॥४३॥इस मन्त्र का उत्तर भाग ऊपर मन्त्र ३६ में आ चुका है ॥

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