अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
अ॒स्मिन्व॒यं संक॑सुके अ॒ग्नौ रि॒प्राणि॑ मृज्महे। अभू॑म य॒ज्ञियाः॑ शु॒द्धाः प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मिन् । व॒यम् । सम्ऽक॑सुके । अ॒ग्नौ । रि॒प्राणि॑ । मृ॒ज्म॒हे॒ । अभू॑म । य॒ज्ञिया॑: । शु॒ध्दा: । प्र । न॒: । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥२.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मिन्वयं संकसुके अग्नौ रिप्राणि मृज्महे। अभूम यज्ञियाः शुद्धाः प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मिन् । वयम् । सम्ऽकसुके । अग्नौ । रिप्राणि । मृज्महे । अभूम । यज्ञिया: । शुध्दा: । प्र । न: । आयूंषि । तारिषत् ॥२.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
विषय - यज्ञियाः, शुद्धाः
पदार्थ -
१. (वयम्) = हम (अस्मिन्) = इस हृदयदेश में समिद्ध किये गये, (संकसुके अग्नौ) = ब्रह्माण्ड को सम्यक् गति देनेवाले अग्रणी प्रभु में (रिप्राणि) = दोषों को (मृज्यहे) = धो डालते हैं। प्रभु स्मरण द्वारा जीवन को पवित्र बनाने के लिए यत्नशील होते हैं। २. प्रभुस्मरण द्वारा दोषों का प्रमार्जन करके हम (यज्ञियाः) = यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त, (शुद्धा:) = शुद्ध जीवनवाले (अभूम) = हुए हैं। वे प्रभु (न:) = हमारे (आयूंषि) = जीवनों को (प्रतारिषत्) = खुब दीर्घ करें।
भावार्थ -
प्रभुस्मरण द्वारा दोषों का प्रमार्जन करके हम यज्ञिय व शुद्ध बनें और दीर्घजीवन को प्राप्त करें।
इस भाष्य को एडिट करें