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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 38
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    मुहु॒र्गृध्यैः॒ प्र व॑द॒त्यार्तिं॒ मर्त्यो॒ नीत्य॑। क्र॒व्याद्यान॒ग्निर॑न्ति॒काद॑नुवि॒द्वान्वि॒ताव॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मुहु॑: । गृध्यै॑: । प्र । व॒द॒ति॒ । आर्ति॑म् । मर्त्य॑: । नि॒ऽइत्य॑ । क्र॒व्य॒ऽअत् । यान् । अ॒ग्नि: । अ॒न्ति॒कात् । अ॒नु॒ऽवि॒द्वान् । वि॒ऽताव॑ति ॥२.३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मुहुर्गृध्यैः प्र वदत्यार्तिं मर्त्यो नीत्य। क्रव्याद्यानग्निरन्तिकादनुविद्वान्वितावति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मुहु: । गृध्यै: । प्र । वदति । आर्तिम् । मर्त्य: । निऽइत्य । क्रव्यऽअत् । यान् । अग्नि: । अन्तिकात् । अनुऽविद्वान् । विऽतावति ॥२.३८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 38

    पदार्थ -

    १. (यान्) = जिन पुरुषों को (क्रव्यात् अग्निः) = यह मांसभक्षक अग्नि (अन्तिकात्) = समीप से (अनुविद्वान्) = अनुक्रम से वेदना को प्रास कराता हुआ [विद्-वेदना का अनुभव] (वितावति) = [त हिंसायाम्] विशेषरूप से हिंसित करता है, वह (मर्त्यः) = मनुष्य (आर्तिं नि इत्य) = पीड़ा को निश्चय से प्राप्त करके भी (मुहः) = फिर (गध्यैः प्रवदति) = भोगलिप्सुओं के साथ बात करता है। अपने भोगप्रवण साथियों के वातावरण से दूर नहीं हो पाता। मांसभोजन आरम्भ में बेशक स्वादिष्ट व उत्तेजक हो, परन्तु कुछ देर बाद यह पीड़ाओं व रोगों का कारण बनने लगता है। धीमे धीमे यह वेदना को प्राप्त कराता हुआ हिंसा का कारण बनता है, परन्तु विषयों का स्वभाव ही ऐसा है कि मनुष्य पीड़ित होकर भी फिर अपने भोगप्रवण साथियों के संग में इन भोगों में आसक्त हो जाता है।

    भावार्थ -

    मांसभोजन विविध पीड़ाओं का कारण बनता है, परन्तु मांसभोजनादि में आसक्त पुरुष पीड़ित होकर भी इन विषयों को छोड़ नहीं पाता।

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