अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिगार्षीपङ्क्तिः
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
पुन॑स्त्वादि॒त्या रु॒द्रा वस॑वः॒ पुन॑र्ब्र॒ह्मा वसु॑नीतिरग्ने। पुन॑स्त्वा॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॒राधा॑द्दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय ॥
स्वर सहित पद पाठपुन॑: । त्वा॒ । आ॒दि॒त्या: । रु॒द्रा: । वस॑व: । पुन॑: । ब्र॒ह्मा । वसु॑ऽनीति: । अ॒ग्ने॒ । पुन॑: । त्वा॒ । ब्रह्म॑ण: । पति॑: । आ । अ॒धा॒त् । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसवः पुनर्ब्रह्मा वसुनीतिरग्ने। पुनस्त्वा ब्रह्मणस्पतिराधाद्दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥
स्वर रहित पद पाठपुन: । त्वा । आदित्या: । रुद्रा: । वसव: । पुन: । ब्रह्मा । वसुऽनीति: । अग्ने । पुन: । त्वा । ब्रह्मण: । पति: । आ । अधात् । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय ॥२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
विषय - नवजीवन प्रदाता 'तेतीस देव'
पदार्थ -
१.हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव! (त्वा) = तुझे (पुन:) = फिर से (आदित्या:) = आदित्य शतशारदाय-सौ वर्ष तक चलनेवाले (दीर्घायुत्वाय) = दीर्घजीवन के लिए (आधात्) = स्थापित करें। इसी प्रकार (रुद्रा:) = रुद्र और (वसवः) = वसु तुझे शतशारद दीर्घायुत्व के लिए स्थापित करनेवाले हों। बारह आदित्य वर्ष के बारह मास हैं, दश प्राण व आत्मा ये ११ रुद्र हैं, 'पञ्चभूत, मन, बुद्धि, अहंकार' वसु हैं। ये सबके सब तेरे दीर्घजीवन का साधन बनें। २. इन ३१ देवों के साथ (वसुनीतिः) = सब वसुओं को निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों को प्राप्त करानेवाला (ब्रह्मा) = सृष्टि-निर्माता प्रभु (पुन:) = फिर शतशारद दीर्घायुत्व के लिए स्थापित करे और (ब्रह्मणस्पतिः) = वेदज्ञान का स्वामी प्रभु (पुन:) = फिर (त्वा) = तुझे शतशारद दीर्घायुत्व को प्रास कराये।
भावार्थ -
'आदित्य, रुद्र, बसु. ब्रह्मा [Creater] तथा ब्रह्मणस्पति [Giver of knowledge]' ये सब हमें फिर से पवित्र जीवनवाला बनाकर सौ वर्ष का दीर्घजीवन प्राप्त कराएँ।
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