अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 32
सूक्त - भृगुः
देवता - मृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
व्याक॑रोमि ह॒विषा॒हमे॒तौ तौ ब्रह्म॑णा॒ व्यहं क॑ल्पयामि। स्व॒धां पि॒तृभ्यो॑ अ॒जरां॑ कृणोमि दी॒र्घेणायु॑षा॒ समि॒मान्त्सृ॑जामि ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽअक॑रोमि । ह॒विषा॑ । अ॒हम् । ए॒तो । तौ । ब्रह्म॑णा । वि । अ॒हम् । क॒ल्प॒या॒मि॒ । स्व॒धाम् । पि॒तृऽभ्य॑: । अ॒जरा॑म् । कृ॒णोमि॑ । दी॒र्घेण॑ । आयु॑षा । सम् । इ॒मान् । सृ॒जा॒मि॒ ॥२.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
व्याकरोमि हविषाहमेतौ तौ ब्रह्मणा व्यहं कल्पयामि। स्वधां पितृभ्यो अजरां कृणोमि दीर्घेणायुषा समिमान्त्सृजामि ॥
स्वर रहित पद पाठविऽअकरोमि । हविषा । अहम् । एतो । तौ । ब्रह्मणा । वि । अहम् । कल्पयामि । स्वधाम् । पितृऽभ्य: । अजराम् । कृणोमि । दीर्घेण । आयुषा । सम् । इमान् । सृजामि ॥२.३२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 32
विषय - देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ
पदार्थ -
१. प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं (एतौ) = इन दोनों पति-पत्नी को (हविषा) = हवि के द्वारा दानपूर्वक अदन के द्वारा-यज्ञशेष के सेवन के द्वारा (व्याकरोमि) = [वि आ कृ] विशिष्टरूप से समन्तात् निर्मित करता हूँ, अर्थात् अग्रिहोत्र की प्रवृत्ति के द्वारा-सदा यज्ञशेष [अमृत] के सेवन से इनके सब अङ्ग-प्रत्यङ्ग सुपुष्ट होते हैं। (तौ) = उन दोनों पति-पत्नी को (अहम्) = मैं (ब्रह्मणा) = ज्ञान के द्वारा विकल्पयामि विशिष्ट सामर्थ्यबाला बनता हूँ। [क्लूप् सामर्थ्य] । ज्ञान की प्रवृत्ति इन्हें, विलासवृत्ति से ऊपर उठाकर शक्तिसम्पन्न करती है। २. इनके घर में (पितृभ्यः) = वृद्ध माता-पिता के लिए (स्वधाम्) = स्वधा को-पितरों के लिए दीयमान अन्न को [पितृभ्यः स्वधा] (अजरां कृणोमि) = न जीर्ण होनेवाला करता है। इनके यहाँ वृद्ध माता-पिता को सदा उत्तम भोजन प्राप्त रहता है। इसप्रकार ये पति-पत्नी देवयज्ञ [हविषा], ब्रह्मयज्ञ [ब्रह्मणा] तथा पितृयज्ञ [पितृभ्यः स्वधा] को नियम से करते हैं। इसप्रकार (इमान्) = इस घर में रहनेवाले इन सब लोगों को दीर्घेण आयुषा दीर्घजीवन से (संसृजामि) = संसृष्ट करता हूँ-ये सब इन यज्ञों के कारण दीर्घजीवी बनते हैं।
भावार्थ -
हवि के द्वारा हम अङ्ग-प्रत्यङ्ग को पुष्ट करनेवाले बनें। ज्ञान के द्वारा हम विशिष्ट सामर्थ्यवाले हों। पितृयज्ञ को कभी विस्मृत न करें। यही दीर्घजीवन की प्राप्ति का मार्ग है।
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