अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 35
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
द्वि॑भागध॒नमा॒दाय॒ प्र क्षि॑णा॒त्यव॑र्त्या। अ॒ग्निः पु॒त्रस्य॑ ज्ये॒ष्ठस्य॒ यः क्र॒व्यादनि॑राहितः ॥
स्वर सहित पद पाठद्वि॒भा॒ग॒ऽध॒नम् । आ॒ऽदाय॑ । प्र । क्षि॒णा॒ति॒ । अव॑र्त्या । अ॒ग्नि: । पु॒त्रस्य॑ । ज्ये॒ष्ठस्य॑ । य: । क्र॒व्य॒ऽअत् । अनि॑:ऽआहित: ॥२,३५॥
स्वर रहित मन्त्र
द्विभागधनमादाय प्र क्षिणात्यवर्त्या। अग्निः पुत्रस्य ज्येष्ठस्य यः क्रव्यादनिराहितः ॥
स्वर रहित पद पाठद्विभागऽधनम् । आऽदाय । प्र । क्षिणाति । अवर्त्या । अग्नि: । पुत्रस्य । ज्येष्ठस्य । य: । क्रव्यऽअत् । अनि:ऽआहित: ॥२,३५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 35
विषय - मांसभक्षण का परिणाम
पदार्थ -
१. (य:) = जो (क्रव्यात् अग्नि:) = मांसभक्षक अग्नि (अनिराहितः) = बाहर स्थापित नहीं किया जाता, अर्थात् यदि हममें मांसभक्षण की प्रवृत्ति आ जाती है, तो यह भक्षण प्रवृत्ति (ज्येष्ठस्य पुत्रस्य) = ज्येष्ठ पुत्र के (द्विभागधनम् आदाय) = दुगने भाग में प्राप्त हुए-हुए धन को भी (अवर्त्या प्रक्षिणाति) = दरिद्रता से विनाश कर देती है। [अवर्ति Bad fortune, poverty]। २. मांसभक्षण की प्रवृत्ति भाइयों के पारस्परिक प्रेम को भी कम कर देती है। उनके दायविभाग में भी कलह उत्पन्न हो जाते हैं। बड़ा भाई दुगुना हड़पने की वृत्तिवाला बनता है, परन्तु यह दुगुना धन भी उसका मांसभक्षण आदि दुर्व्यसनों में समाप्त हो जाता है। इस घर में दरिद्रता व दौर्भाग्य का राज्य हो जाता है।
भावार्थ -
मांसभक्षण से परस्पर प्रेम नहीं रहता। भाई आपस में दायविभाग पर ही लड़ पड़ते हैं। यदि अन्याय से बड़ा लड़का दुगना धन ले भी लेता है, तो भी वह शीघ्र ही धन को व्यसनों में समाप्त करके दरिद्र हो जाता है।
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