अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 24
सूक्त - भृगुः
देवता - मृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
आ रो॑ह॒तायु॑र्ज॒रसं॑ वृणा॒ना अ॑नुपू॒र्वं यत॑माना॒ यति॒ स्थ। तान्व॒स्त्वष्टा॑ सु॒जनि॑मा स॒जोषाः॒ सर्व॒मायु॑र्नयतु॒ जीव॑नाय ॥
स्वर सहित पद पाठआ । रो॒ह॒त॒ । आयु॑: । ज॒रस॑म् । वृ॒णा॒ना: । अ॒नु॒ऽपू॒र्वम् । यत॑माना: । यति॑ । स्थ । तान् । व॒: । त्वष्टा॑ । सु॒ऽजनि॑मा । स॒ऽजोषा॑: । सर्व॑म् । आयु॑: । न॒य॒तु॒ । जीव॑नाय ॥२.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोहतायुर्जरसं वृणाना अनुपूर्वं यतमाना यति स्थ। तान्वस्त्वष्टा सुजनिमा सजोषाः सर्वमायुर्नयतु जीवनाय ॥
स्वर रहित पद पाठआ । रोहत । आयु: । जरसम् । वृणाना: । अनुऽपूर्वम् । यतमाना: । यति । स्थ । तान् । व: । त्वष्टा । सुऽजनिमा । सऽजोषा: । सर्वम् । आयु: । नयतु । जीवनाय ॥२.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 24
विषय - अनुपूर्व यतमाना:
पदार्थ -
१. (यति स्थ) = इस घर में जितने भी आप सब हों वे (अनपूर्वं यतमाना:) = क्रमश: गृह की स्थिति को उत्तम बनाने के लिए प्रयत्न करते हुए (आयुः आरोहत) = जीवन में आगे और आगे बढ़ो। (जरसं वृणाना:) = आप जरावस्था का वरण करनेवाले बनो। यौवन में ही आपका जीवन समास न हो जाए। पिता के बाद पुत्र आता है। पिता ने जैसे घर को अच्छा बनाने का यत्न किया था, उसी प्रकार पुत्र गृहस्थिति को और अधिक उन्नत करने के लिए यत्नशील होता है। इस प्रकार अनुपूर्व यत्न करते हुए सब पूर्ण जरावस्था तक जीनेवाले बनते हैं। पुत्र कभी पिता से पहले चला नहीं जाता। २. (तान् व:) = उन गृह में रहनेवाले आप सबको (त्वष्टा) = संसार का निर्माता प्रभु (सुजनिमा) = उत्तम जन्मों को देनेवाला व (सजोषा:) = सदा हृदयों में हमारे साथ प्रीतिपूर्वक स्थित होनेवाला (जीवनाय) = उत्कृष्ट दीर्घजीवन के लिए (सर्वम् आयुः जयतु) = पूर्ण जीवन को प्राप्त कराए।
भावार्थ -
हम अपने घरों में सदा उत्तम स्थिति के लिए प्रयत्न करते हुए, आगे बढ़ें। प्रभु से संगत हुए-हुए जीवन को उत्तम बनाएँ।
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