अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
संक॑सुको॒ विक॑सुको निरृ॒थो यश्च॑ निस्व॒रः। ते ते॒ यक्ष्मं॒ सवे॑दसो दू॒राद्दू॒रम॑नीनशन् ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽक॑सुक: । विऽक॑सुक: । नि॒:ऽऋ॒थ: । य: । च॒ । नि॒ऽस्व॒र: । ते । ते॒ । यक्ष्म॑म् । सऽवे॑दस: । दू॒रात् । दू॒रम् । अ॒नी॒न॒श॒न् ॥२.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
संकसुको विकसुको निरृथो यश्च निस्वरः। ते ते यक्ष्मं सवेदसो दूराद्दूरमनीनशन् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽकसुक: । विऽकसुक: । नि:ऽऋथ: । य: । च । निऽस्वर: । ते । ते । यक्ष्मम् । सऽवेदस: । दूरात् । दूरम् । अनीनशन् ॥२.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
विषय - 'संकसुक, विकसुक, निर्वथ, निस्वर'
पदार्थ -
१. (संकसुक:) = वे प्रभु सारे ब्रह्माण्ड का सम्यक् शासन करनेवाले हैं। (विकसुक:) = विविधरूपों में लोक-लोकान्तरों को गति देनेवाले हैं। (निर्ऋथ:) = पीड़ा का सर्वथा नाश करनेवाले है (च) = और प्रभु वे हैं (य:) = जो (निस्वर:) = उपताप से रहित हैं-अपने उपासकों से उपताप को दूर करनेवाले है। २. प्रभु का उपर्युक्त रूपों में स्मरण करते हुए और स्वयं भी वैसा बनते हुए (ते) = वे (सवेदसः) = ज्ञानी पुरुष [ज्ञान के साथ रहनेवाले पुरुष] (ते यक्ष्मम्) = तेरे राजरोग को (दूरात् दूरम्) = दूर-से दर (अनीनशन्) = नष्ट करें। प्रस्तुत मन्त्र में ब्राह्मण संकसक है-अपना सम्यक शासन करनेवाला। क्षत्रिय 'विकसुक' है-राज्य के सब कार्यों को चलानेवाला-सब विभागों को गति देनेवाला। वैश्य 'निर्ऋथ' है-अन्नादि का सम्यक् उत्पादन करता हुआ यह प्रजा को पीड़ा से बचाता है। शूद्र 'निस्वर' है-बोलता कम है। शोधन आदि द्वारा उपताप को दूर करता है। ये सब अपना अपना कार्य करते हुए, संज्ञान द्वारा राष्ट्र को रोगों से मुक्त रखते हैं।
भावार्थ -
प्रभु को 'शासक-गति देनेवाले, पीड़ा व उपताप से दूर ले-जानेवाले' रूप में देखते हुए ज्ञानी पुरुष हमारे रोगों को सुदूर विनष्ट करें। राष्ट्र का उत्तम शासन करते हुए ये लोग राष्ट्र को रोगों से बचाएँ।
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