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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    सीसे॑ मृड्ढ्वं न॒डे मृ॑ड्ढ्वम॒ग्नौ संक॑सुके च॒ यत्। अथो॒ अव्यां॑ रा॒मायां॑ शीर्ष॒क्तिमु॑प॒बर्ह॑णे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सीसे॑ । मृ॒ड्ढ्व॒म् । न॒डे । मृ॒ड्ढ्व॒म् । अ॒ग्नौ । सम्ऽक॑सुके । च॒ । यत् । अथो॒ इति॑ । अव्या॑म् । रा॒माया॑म् । शी॒र्ष॒क्तिम् । उ॒प॒ऽबर्ह॑णे ॥२.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सीसे मृड्ढ्वं नडे मृड्ढ्वमग्नौ संकसुके च यत्। अथो अव्यां रामायां शीर्षक्तिमुपबर्हणे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सीसे । मृड्ढ्वम् । नडे । मृड्ढ्वम् । अग्नौ । सम्ऽकसुके । च । यत् । अथो इति । अव्याम् । रामायाम् । शीर्षक्तिम् । उपऽबर्हणे ॥२.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 19

    पदार्थ -

    १. "किस प्रकार मनुष्य संसार में आता है, कुछ बड़ा होता है, शिक्षणालय को पूरा करके गृहस्थ में प्रवेश करता है, कुछ फूलता-फलता है, जिम्मेदारियों को समाप्त करके जाने की तैयारी करता है' यह सब-कुछ सोचने पर यह संसार एक शिरोवेदना के समान ही प्रतीत होता है झंझट-ही-झंझट-सा लगता है। मन्त्र में कहते हैं कि (यत्) = इस (शीर्षक्तिम्) = शिरोवेदना को (सीसे मृड्ढ्व म्) = उस [षिञ् बन्धने, ई गतौ 'ईयते', स्यति 'षोऽन्तकर्मणि'] संसार को बाँधनेवाले, उसे गति देनेवाले व उसका अन्त करनेवाले 'उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय' हेतु प्रभु में शोध डालो प्रभु स्मरण द्वारा सिरदर्दी को दूर कर डालो। प्रभु-स्मरण होने पर संसार-यात्रा सुखेन पूर्ण हो जाती है। (नडे मृड्ड्वम्) = [नड गहने] उस गहन [Incomprehensible] अचिन्त्य प्रभु से इसे शोध डालो। इससे उस नड' प्रभु में विलीन हुआ-हुआ मन परेशान नहीं होता। च-और उस संकसुके अग्नौ-सम्यक् शासन करनेवाले-सम्यक गति देनेवाले अग्नणी प्रभु में इस सिरदर्द को शोध डालो। प्रभु-स्मरण उस शान्ति व शक्ति को देगा, जिससे यह यात्रा ठीक प्रकार से पूर्ण हो जाएगी। २. (अथो) = और (रामायां अव्याम्) = सर्वत्र रमण करनेवाले [अव रक्षणे] सर्वरक्षक प्रभु में इस शिरोवेदना का अन्त कर डालो। प्रभुचिन्तन संसार को सुखद बना देगा। अन्त में (उपबर्हणे) = उस उपासकों की वृद्धि के कारणभूत ब्रह्म में [बृहि वृद्धी] इस वेदना का अन्त कर डालो।

    भावार्थ -

    हम प्रभु का स्मरण करें कि वे संसार की 'उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय' का हेतु हैं। अचिन्त्य हैं, शासक व गति देनेवाले हैं, सर्वरक्षक व सर्वत्र रमण करनेवाले हैं। वे प्रभु उपासकों की वृद्धि के कारणभूत हैं। इस प्रकार प्रभु का स्मरण होने पर यह संसार हमारे लिए सिरदर्द न बनेगा।

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