अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 44
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - एकावसाना द्विपदार्ची बृहती
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
अ॑न्त॒र्धिर्दे॒वानां॑ परि॒धिर्म॑नु॒ष्याणाम॒ग्निर्गा॑र्ह्पत्य उ॒भया॑नन्त॒रा श्रि॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्त॒:ऽधि: । दे॒वाना॑म् । प॒रि॒ऽधि: । म॒नु॒ष्या᳡णाम् । अ॒ग्नि: । गार्ह॑ऽपत्य: । उ॒भया॑न् । अ॒न्त॒रा । श्रि॒त: ॥२.४४॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तर्धिर्देवानां परिधिर्मनुष्याणामग्निर्गार्ह्पत्य उभयानन्तरा श्रितः ॥
स्वर रहित पद पाठअन्त:ऽधि: । देवानाम् । परिऽधि: । मनुष्याणाम् । अग्नि: । गार्हऽपत्य: । उभयान् । अन्तरा । श्रित: ॥२.४४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 44
विषय - अन्तर्धि-परिधि
पदार्थ -
१. 'गार्हपत्य अग्नि' शब्द 'पिता' के लिए भी प्रयुक्त होता है ('पिता वै गार्हपत्योऽग्निः') मनु०। यह पिता जब प्रभु का उपासन करता है तब इस गृहपति से युक्त 'प्रभु' भी 'गार्हपत्य अग्नि' है। यह प्रभुरूप गार्हपत्य अग्नि (देवानां अन्तर्थि:) = देवों को अन्दर धारण करनेवाला है। प्रभुस्मरण से दिव्यगुणों का धारण होता है। यह गार्हपत्य अग्नि (मनुष्याणां परिधि:) = मनुष्यों का चारों ओर से धारण व रक्षण करनेवाला है। प्रभु उपासकों का रक्षण करते ही हैं। २. (गार्हपत्यः अग्निः) = यह उपासना करनेवाले गृहपतियों से संयुक्त अग्रणी प्रभु (उभयान् अन्तरा श्रित:) = दोनों के बीच में श्रित हैं-स्थित हैं। ये प्रभु एक ओर हमें 'देव' बनाते हैं, दूसरी ओर 'मनुष्य'। प्रभु का उपासक देव तो बनता ही है-महादेव के सम्पर्क में देव नहीं बनेगा तो क्या बनेगा? यह उपासक इस प्राकृतिक संसार में भी सब कार्यों को मननपूर्वक करता है। मननपूर्वक कार्यों को करता हुआ ऐश्वर्यवान् तो बनता है, परन्तु उस ऐश्वर्य में फँसता नहीं।
भावार्थ -
प्रभु 'गार्हपत्य अग्नि' हैं-प्रत्येक गृहपति से उपासना के योग्य हैं। यह उपासना उसे 'देव' व 'मनुष्य' बनाएगी।
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