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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    निरि॒तो मृ॒त्युं निरृ॑तिं॒ निररा॑तिमजामसि। यो नो॒ द्वेष्टि॒ तम॑द्ध्यग्ने अक्रव्या॒द्यमु॑ द्वि॒ष्मस्तमु॑ ते॒ प्र सु॑वामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि: । इ॒त: । मृ॒त्युम् । नि:ऽऋ॑तिम् । नि: । अरा॑तिम् । अ॒जा॒म॒सि॒ । य: । न॒: । द्वेष्टि॑ । तम् । अ॒ध्दि॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒क्र॒व्य॒ऽअ॒त् । यम् । ऊं॒ इति॑ । द्वि॒ष्म: । तम् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ । प्र । सु॒वा॒म॒सि॒ ॥२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निरितो मृत्युं निरृतिं निररातिमजामसि। यो नो द्वेष्टि तमद्ध्यग्ने अक्रव्याद्यमु द्विष्मस्तमु ते प्र सुवामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि: । इत: । मृत्युम् । नि:ऽऋतिम् । नि: । अरातिम् । अजामसि । य: । न: । द्वेष्टि । तम् । अध्दि । अग्ने । अक्रव्यऽअत् । यम् । ऊं इति । द्विष्म: । तम् । ऊं इति । ते । प्र । सुवामसि ॥२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. प्रजापीड़क व्यक्ति 'क्रव्याद् अग्नि' है, तो पीड़कों से रक्षा करनेवाला राजा 'अक्रव्याद् अग्नि' है। राजा से प्रजावर्ग कहता है कि हम (इत:) = यहाँ अपने जीवन से (मृत्युम्) = मृत्यु को रोगों को (निः अजामसि) = निकालकर दूर करते हैं। (ऋतिम्) = [ऋणोति to kill, attack] औरों पर आक्रमण करने व हिंसन की वृत्ति को (नि:) = दूर करते हैं। (अरातिम् नि:) = [अजामसि] अदान व कृपणता की वृत्ति को दूर करते हैं। जो व्यक्ति हम सबके प्रति द्वेष करता है (तम्) = उसे आप (अद्धि) = नष्ट [Destroy] कीजिए। (उ) = और (यं द्विष्म:) = जिस एक को हम सब प्रीति नहीं कर पाते (तम्) = उसको (उ) = निश्चय से (ते प्रसुवामसि) = तेरे प्रति प्रेरित करते हैं।

    भावार्थ -

    राष्ट्र में जब राजा 'अक्रव्याद् अग्नि' होता है-प्रजा को प्रजापीड़कों से रक्षित करता है तब प्रजा 'रोग, हिंसा की वृत्ति तथा कृपणता' से दूर होती है और राजा प्रजाद्वेषियों को उचित दण्ड देनेवाला होता है।

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