अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 26
सूक्त - भृगुः
देवता - मृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
अश्म॑न्वती रीयते॒ सं र॑भध्वं वी॒रय॑ध्वं॒ प्र त॑रता सखायः। अत्रा॑ जहीत॒ ये अस॑न्दु॒रेवा॑ अनमी॒वानुत्त॑रेमाभि॒ वाजा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअश्म॑न्ऽवती । री॒य॒ते॒ । सम् । र॒भ॒ध्व॒म् । वी॒रय॑ध्वम् । प्र । त॒र॒त॒ । स॒खा॒य॒: । अत्र॑ । ज॒ही॒त॒ । ये । अस॑न् । दु॒:ऽएवा॑ । अ॒न॒मी॒वान् । उत् । त॒रे॒म॒ । अ॒भि । वाजा॑न् ॥२.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्मन्वती रीयते सं रभध्वं वीरयध्वं प्र तरता सखायः। अत्रा जहीत ये असन्दुरेवा अनमीवानुत्तरेमाभि वाजान् ॥
स्वर रहित पद पाठअश्मन्ऽवती । रीयते । सम् । रभध्वम् । वीरयध्वम् । प्र । तरत । सखाय: । अत्र । जहीत । ये । असन् । दु:ऽएवा । अनमीवान् । उत् । तरेम । अभि । वाजान् ॥२.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 26
विषय - अश्मन्वती नदी
पदार्थ -
१. यह संसार नदी (अश्मन्वती) = पत्थरोंवाली है-इसमें तैरना सुगम नहीं। विविध प्रलोभन ही इसमें पत्थरों के समान हैं। (रीयते) = यह निरन्तर चल रही है-संसार में रुकने का काम नहीं। (संरभध्वम्) = एक-दूसरे के साथ मिलकर तैयार हो जाओ। (वीरयध्वम्) = वीरतापूर्वक आचरण करो। (सखायः प्रतरत) = मित्र बनकर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर, इस नदी को तैर जाओ। २. (ये दरेवाः असन्) = जो भी दुराचरण हों, उन्हें (अत्रा जहीत) = यहाँ ही छोड़ जाओ। उनके बोझ को लादकर तैरना सुगम न होगा। इन अशुभों को छोड़कर (अनमीवान) = रोगरहित वाजान (अभि) = शक्तियों को लक्ष्य बनाकर (उत्तरेम) = इस नदी को तैर जाएँ।
भावार्थ -
प्रलोभन-पाषाणों से परिपूर्ण इस भव-नदी को तैरना आसान नहीं। यहाँ साथी बनकर वीरता से हम इस नदी को पार करने का संकल्प करें। अशुभों को यहीं छोड़कर नीरोगता देनेवाली शक्तियों को लेकर हम परले पार उतरें।
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