अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 41
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
ता अ॑ध॒रादुदी॑ची॒राव॑वृत्रन्प्रजान॒तीः प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑। पर्व॑तस्य वृष॒भस्याधि॑ पृ॒ष्ठे नवा॑श्चरन्ति स॒रितः॑ पुरा॒णीः ॥
स्वर सहित पद पाठता:। अ॒ध॒रात् । उदी॑ची: । आ । अ॒व॒वृ॒त्र॒न् । प्र॒ऽजा॒न॒ती: । प॒थिऽभि॑: । दे॒व॒ऽयानै॑: । पर्व॑तस्य । वृ॒ष॒भस्य॑ । अधि॑ । पृ॒ष्ठे । नवा॑: । च॒र॒न्ति॒ । स॒रित॑: । पु॒रा॒णी: ॥२.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
ता अधरादुदीचीराववृत्रन्प्रजानतीः पथिभिर्देवयानैः। पर्वतस्य वृषभस्याधि पृष्ठे नवाश्चरन्ति सरितः पुराणीः ॥
स्वर रहित पद पाठता:। अधरात् । उदीची: । आ । अववृत्रन् । प्रऽजानती: । पथिऽभि: । देवऽयानै: । पर्वतस्य । वृषभस्य । अधि । पृष्ठे । नवा: । चरन्ति । सरित: । पुराणी: ॥२.४१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 41
विषय - प्रजानती: [आपः]
पदार्थ -
१. (ता:) = वे (प्रजानती:) = प्रकृष्ट ज्ञानवाली आप्त प्रजाएँ (अधरात) = निम्न मागों को छोड़कर (उदीची:) = उत्कृष्ट मार्गों से गति करनेवाली होती हुई (देवयानैः पथिभिः) = देवयान मार्गों से (आववृत्रन्) = कर्मों में आवर्तनवाली होती हैं। ज्ञानी पुरुष सदा निम्न मार्गों को छोड़कर उत्कृष्ट मागों से चलते हैं। ये आसुरभावों को त्यागकर दैवी प्रवृत्तियों को अपनाते हैं। २. (पर्वतस्य) = पूरण करनेवाले (वृषभस्य) = सुखों के वर्षक प्रभु के (अधिपृष्ठे) = आश्रय में प्रभु की गोद में (पुराणी: सरित:) = क्षीण [Decayed] हुई-हुई नदियाँ फिर से (नवा: चरन्ति) = नवीन होकर गतिवाली होती हैं। जैसे वृष्टिवाले पर्वत पर क्षीण हुई-हुई नदियाँ फिर से जलपूर्ण होकर प्रवाहवाली होती हैं, उसी प्रकार हमारा पूर्ण करनेवाले, सुखों के वर्षक प्रभु के आश्रय में हमारा निम्न स्तर का जीवन पुन: उच्च स्तर का बन जाता है। हम नीचे से ऊपर आ जाते हैं। आसुरमार्ग को छोड़कर दिव्यमार्ग का आश्रय करते हैं।'
भावार्थ -
प्रभु की गोद में हम निम्न मार्ग को छोड़कर उत्कृष्ट मार्ग पर गति करनेवाले बनें। प्रभुस्मरण हमें देवयान में प्रेरित करे। क्षीण हुए-हुए हम फिर से पूर्ण हो जाएँ।
इस भाष्य को एडिट करें