अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुब्गर्भा विपरीतपादलक्ष्मा पङ्क्तिः
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
क्र॒व्याद॑म॒ग्निमि॑षि॒तो ह॑रामि॒ जना॑न्दृं॒हन्तं॒ वज्रे॑ण मृ॒त्युम्। नि तं शा॑स्मि॒ गार्ह॑पत्येन वि॒द्वान्पि॑तॄ॒णां लो॒केऽपि॑ भा॒गो अ॑स्तु ॥
स्वर सहित पद पाठक्र॒व्य॒ऽअद॑म् । अ॒ग्निम् । इ॒षि॒त: । ह॒रा॒मि॒ । जना॑न् । दृं॒हन्त॑म् । वज्रे॑ण । मृ॒त्युम् । नि । तम् । शा॒स्मि॒ । गार्ह॑ऽपत्येन । वि॒द्वान् । पि॒तॄ॒णाम् । लो॒के । अपि॑ । भा॒ग: । अ॒स्तु॒ ॥२.९॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रव्यादमग्निमिषितो हरामि जनान्दृंहन्तं वज्रेण मृत्युम्। नि तं शास्मि गार्हपत्येन विद्वान्पितॄणां लोकेऽपि भागो अस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठक्रव्यऽअदम् । अग्निम् । इषित: । हरामि । जनान् । दृंहन्तम् । वज्रेण । मृत्युम् । नि । तम् । शास्मि । गार्हऽपत्येन । विद्वान् । पितॄणाम् । लोके । अपि । भाग: । अस्तु ॥२.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
विषय - मांस भोजन व मृत्युदहण
पदार्थ -
१. राजा कहता है कि (इषित:) = प्रजा से प्रेरित किया हुआ मैं (जनान् मृत्यु दूहन्तम्) = मनुष्यों की मृत्यु को दृढ़ करते हुए, अर्थात् लोगों में रोगों की वृद्धि करते हुए इस (क्रव्याद् अग्निम्) = मांसभक्षक अग्नि को (वज्रेण हरामि) = वन से-कठोर दण्ड से दूर करता हूँ। जब राजसभा 'मांसभक्षण निषेध' का नियम बनाती हैं, तब राजा का कर्तव्य है कि कठोर दण्ड द्वारा इस मांसभक्षण की प्रवृत्ति को समाप्त करे। यह मांसभक्षण लोगों में रोगवृद्धि का कारण बनता है। २. राजा कहता है कि (विद्वान) = मांसभक्षण के दोषों को जानता हुआ मैं (तम्) = उस मांसभक्षक को (निशास्मि) = निश्चित रूप से दण्डित करता हूँ। (गार्हपत्येन) = गार्हपत्य के हेतु से मैं उसे दण्डित करता हूँ। इसलिए मैं उसे दण्डित करता हूँ कि वह उत्तम गृहपति बने। सन्तानों का उत्तम निर्माण करनेवाला हो और (लोके) = इस लोक में (पितृणां अपि भागः अस्तु) = पितरों का भी उचित सेवन [भज सेवायाम्] हो। वस्तुतः मांसभोजो न तो सन्तानों का उत्तम निर्माण कर पाता है और न ही बड़ों का उचित सम्मान करनेवाला होता है। मांसभोजनवाले गृह में ('स्वर्ग तत्र पश्येम पितरौ च पुत्रान्') = वाली बात नहीं होती। देव मांसभोजी नहीं, मांस असुरों का भोजन है।
भावार्थ -
राजा को चाहिए कि राष्ट्र में मांसभोजन को निषिद्ध रक्खे, जिससे लोग उत्तम गृहपति बनते हुए जहाँ सन्तानों का उत्तम निर्माण करें, वहाँ वृद्ध माता-पिता का भी आदर व सेवा करनेवाले बनें।
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