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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 45
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    जी॒वाना॒मायुः॒ प्र ति॑र॒ त्वम॑ग्ने पितॄ॒णां लो॒कमपि॑ गच्छन्तु॒ ये मृ॒ताः। सु॑गार्हप॒त्यो वि॒तप॒न्नरा॑तिमु॒षामु॑षां॒ श्रेय॑सीं धेह्य॒स्मै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जी॒वाना॑म् । आयु॑: । प्र । ति॒र॒ । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । पि॒तॄ॒णाम् । लो॒कम् । अपि॑ । ग॒च्छ॒न्तु॒ । ये । मृ॒ता: । सु॒ऽगा॒र्ह॒प॒त्य: । वि॒ऽतप॑न् । अरा॑तिम् । उ॒षाम्ऽउ॒षाम् । श्रेय॑सीम् । धे॒हि॒ । अ॒स्मै ॥२.४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जीवानामायुः प्र तिर त्वमग्ने पितॄणां लोकमपि गच्छन्तु ये मृताः। सुगार्हपत्यो वितपन्नरातिमुषामुषां श्रेयसीं धेह्यस्मै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जीवानाम् । आयु: । प्र । तिर । त्वम् । अग्ने । पितॄणाम् । लोकम् । अपि । गच्छन्तु । ये । मृता: । सुऽगार्हपत्य: । विऽतपन् । अरातिम् । उषाम्ऽउषाम् । श्रेयसीम् । धेहि । अस्मै ॥२.४५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 45

    पदार्थ -

    १. हे (अग्ने) = गृहपति से युक्त [उपासित] अग्रणी प्रभो! (त्वम्) = आप (जीवानाम् आयुः प्रतिर) = जीवों के आयुष्य को बढ़ाइए। आपकी कृपा से (ये) = जो जीव उत्तम जीवन बिताकर (मृता:) = अब इस शरीर को छोड़ चुके हैं, वे (पितृणां लोकम् अपि गच्छन्तु) = पितृलोक को प्रास हों-इस मर्त्यलोक में जन्म न लेकर पितृलोक-चन्द्रलोक में वे जन्म लेने के योग्य बनें। २. वह (सुगार्हपत्य:) = गृहपतियों से उपास्य श्रेष्ठ प्रभु (अराति वितपन्) = अदानवृत्ति को हममें बुझाता हुआ [वि-तप] अथवा हमारे काम-क्रोध आदि शत्रुओं को संतप्त करनेवाला है। प्रभु निरन्तर हमारे शत्रुओं का विनाश कर रहे हैं। हे प्रभो! आप (अस्मै) = हमारे लिए (उषां उषाम्) = प्रत्येक उषा को (श्रेयसीम्) = प्रशस्यतर रूप में (धेहि) = धारण करो। हम कल से आज अच्छे बनें, आज से आनेवाले दिन में और अच्छे बनें।

    भावार्थ -

    प्रभु हमें दीर्घजीवन प्राप्त कराएँ। हम मरकर उत्कृष्ट लोकों में ही जन्म लेनेवाले बनें। प्रभु हमारे शत्रुओं को संतप्त करके हमारे लिए प्रत्येक उषाकाल को पूर्वापेक्षया अधिक प्रशस्त बनाएँ।

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