Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 40
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - पुरस्तात्ककुम्मत्यनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    यद्रि॒प्रं शम॑लं चकृ॒म यच्च॑ दुष्कृ॒तम्। आपो॑ मा॒ तस्मा॑च्छुम्भन्त्व॒ग्नेः संक॑सुकाच्च॒ यत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । रि॒प्रम् । शम॑लम् । च॒कृ॒म । यत् । च॒ । दु॒:ऽकृ॒तम् । आप॑: । मा॒ । तस्मा॑त् । शु॒म्भ॒न्तु॒ । अ॒ग्ने: । सम्ऽक॑सुकात् । च॒ । यत् ॥२.४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्रिप्रं शमलं चकृम यच्च दुष्कृतम्। आपो मा तस्माच्छुम्भन्त्वग्नेः संकसुकाच्च यत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । रिप्रम् । शमलम् । चकृम । यत् । च । दु:ऽकृतम् । आप: । मा । तस्मात् । शुम्भन्तु । अग्ने: । सम्ऽकसुकात् । च । यत् ॥२.४०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 40

    पदार्थ -

    १. (यत् रिप्रम्) = जिस दोष को, (शमलाम्) = पाप [sin] को, (च) = और (यत् दुष्कृतम्) = जिस दुष्कर्म-अशुभ व्यवहार को (चकृम) = हम कर बैठे, (आप:) = [आपो नाराः इति प्रोक्ताः, आप्नुवन्ति सद्गुणान् याः ताः] उत्तम गुणोंवाले पुरुष (मा) = मुझे (तस्मात्) = उस पाप से (शुम्भन्तु) = शुद्ध करनेवाले हों। वे आत पुरुष उत्तम ज्ञान देकर मेरे दुर्गुणों को दूर करनेवाले हों। २. (च) = तथा (यत्) = जो भी (संकसुकात् अग्ने:) = संकसुक अग्नि, अर्थात् सम्यक् शासन करनेवाले व सारे ब्राह्माण्ड को गति देनेवाले प्रभु से दूर होकर हम भी पाप कर बैठते हैं, उस सबसे ये आप्त पुरुष मुझे दूर करनेवाले हो|

    भावार्थ -

    हम कर्मों में जो भी त्रुटि कर बैठते हैं या अशुभ व्यवहार कर बैठते हैं, उस सबसे सद्गुणी पुरुष हमें दूर करनेवाले हों। उस शासक, गति-प्रदाता प्रभु को भूलकर हम जो पाप कर बैठते हैं, उससे भी ये आस पुरुष हमें पृथक करें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top