अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
यत्त्वा॑ क्रु॒द्धाः प्र॑च॒क्रुर्म॒न्युना॒ पुरु॑षे मृ॒ते। सु॒कल्प॑मग्ने॒ तत्त्वया॒ पुन॒स्त्वोद्दी॑पयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । त्वा॒ । क्रु॒ध्दा: । प्र॒ऽच॒क्रु: । म॒न्युना॑ । पुरु॑षे । मृ॒ते । सु॒ऽकल्प॑म् । अ॒ग्ने॒ । तत् । त्वया॑ । पुन॑: । त्वा॒ । उत् । दी॒प॒या॒म॒सि॒ ॥२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्त्वा क्रुद्धाः प्रचक्रुर्मन्युना पुरुषे मृते। सुकल्पमग्ने तत्त्वया पुनस्त्वोद्दीपयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । त्वा । क्रुध्दा: । प्रऽचक्रु: । मन्युना । पुरुषे । मृते । सुऽकल्पम् । अग्ने । तत् । त्वया । पुन: । त्वा । उत् । दीपयामसि ॥२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
विषय - दण्ड का उद्देश्य 'सुधार'
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = क्रव्यात अग्ने-प्रजापीड़क पुरुष! (पुरुषे मृते) = तेरे द्वारा किसी पुरुष के मत होने पर (मन्युना) = शोक से-दु:ख से [मन्युझेको नु शुक् स्त्रियाम्] (क्रुद्धा:) = क्रुद्ध हुए-हुए व्यक्ति (त्वा प्रचक्रुः) = [प्रकृ Assault, outrage. insult] तुझपर आक्रमण करते हैं या तुझे अपमानित करते हैं, (त्वया तत् सुकल्पम्) = तेरे साथ वह उत्तम ही विधान है [कल्प-A sacred precept, rule]| २. वस्तुत: उचित दण्ड के द्वारा हम (पुन:) = फिर से (त्वा उद्वीपयामसि) = [Illuminate] तुझे प्रबुद्ध करते हैं। यह दण्ड तेरी प्रसुप्त मानव चेतना को जगानेवाला बनता है और तू फिर से क्रव्यात्पन को छोड़कर मानव बनता है-अब तू औरों को पीड़ित न करने का निश्चय करता है।
भावार्थ -
जब एक क्रव्यात् [प्रजापीड़क] किसी पुरुष की हत्या का कारण बनता है तब मृत पुरुष के बन्धु व मित्र क्रुद्ध होकर उसपर आक्रमण करते हैं। यह क्रव्यात् के प्रति व्यवहार ठीक ही है। इसका मुख्य उद्देश्य क्रव्यात् की प्रसुप्त चेतना को जागरित करके उसे फिर से मानव बनाना ही होता है।
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