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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - ककुम्मती पराबृहत्यनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    अन्ये॑भ्यस्त्वा॒ पुरु॑षेभ्यो॒ गोभ्यो॒ अश्वे॑भ्यस्त्वा। निः क्र॒व्यादं॑ नुदामसि॒ यो अ॒ग्निर्जी॑वित॒योप॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अन्ये॑भ्य: । त्वा॒ । पुरु॑षेभ्य: । गोभ्य॑: । अश्वे॑भ्य: । त्वा॒ । नि: । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । नु॒दा॒म॒सि॒ । य: । अ॒ग्नि: । जी॒वि॒त॒ऽयोप॑न: ॥२.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्येभ्यस्त्वा पुरुषेभ्यो गोभ्यो अश्वेभ्यस्त्वा। निः क्रव्यादं नुदामसि यो अग्निर्जीवितयोपनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्येभ्य: । त्वा । पुरुषेभ्य: । गोभ्य: । अश्वेभ्य: । त्वा । नि: । क्रव्यऽअदम् । नुदामसि । य: । अग्नि: । जीवितऽयोपन: ॥२.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 16

    पदार्थ -

    १. हम (त्वा) = तुझ 'क्रव्याद् अग्नि' को-मांसभक्षक सन्तापक पुरुष को (अन्येभ्यः पुरुषेभ्य:) = अन्य पुरुषों के हित के लिए भी (निःनुदामसि) = दूर प्रेरित करते हैं। (गोभ्यः अश्वेभ्य:) = गौवों व घोड़ों के हित के लिए भी (त्वा) = तुझे दूर प्रेरित करते हैं। २. उस तुझको हम दूर प्रेरित करते हैं, (य:) = जो तू (जीवितयोपन:) = [योपयति destroy, blot out, obliterate] जीवन को नष्ट करनेवाला (अग्नि:) = अग्निवत् सन्तापक है।

    भावार्थ -

    सबके हित के लिए मांसभक्षक, अग्निवत् सन्तापक, जीवन के विनाशक पुरुष को दूर करना ही चाहिए।

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