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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
    सूक्त - भृगुः देवता - मृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    इ॒मं जी॒वेभ्यः॑ परि॒धिं द॑धामि॒ मैषां॒ नु गा॒दप॑रो॒ अर्थ॑मे॒तम्। श॒तं जीव॑न्तः श॒रदः॑ पुरू॒चीस्ति॒रो मृ॒त्युं द॑धतां॒ पर्व॑तेन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । जी॒वेभ्य॑: । प॒रि॒ऽधिम् । द॒धा॒मि॒ । मा । ए॒षा॒म् । नु । गा॒त् । अप॑र: । अर्थ॑म् । ए॒तम् । श॒तम् । जीव॑न्त: । श॒रद॑: । पु॒रू॒ची: । ति॒र: । मृ॒त्युम् । द॒ध॒ता॒म् । पर्व॑तेन ॥२.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं जीवेभ्यः परिधिं दधामि मैषां नु गादपरो अर्थमेतम्। शतं जीवन्तः शरदः पुरूचीस्तिरो मृत्युं दधतां पर्वतेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । जीवेभ्य: । परिऽधिम् । दधामि । मा । एषाम् । नु । गात् । अपर: । अर्थम् । एतम् । शतम् । जीवन्त: । शरद: । पुरूची: । तिर: । मृत्युम् । दधताम् । पर्वतेन ॥२.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 23

    पदार्थ -

    १. (जीवेभ्यः) = जीवों के लिए (इमं परिधि दधामि) = इस मर्यादा की स्थापना करता हूँ। जीव प्रत्येक कार्य को मर्यादा में करनेवाले हों। अति को छोड़कर सब कार्यों में मध्यमार्ग का अवलम्बन करें। २. (नु) = निश्चय से (एषाम्) = इनके (एतं अर्थम्) = इस धन को (अपरः मा गात्) = दूसरा प्रास न हो। सब अपने पुरुषार्थ से धर्नाजन करनेवाले हों। दूसरे से धन लेने की कामना ही न करें। अपने पुरुषार्थ से खानेवाले ही 'उत्तम' हैं, पिता से लेकर खानेवाले 'मध्यम', मामा का खानेवाले अधम' व श्वसुर पर आश्रित होनेवाले अधमाधम' हैं। ३. सब जीव (शतं शरदः जीवन्त:) = सौ वर्ष तक जीएँ। जीएँ भी (पुरूची:) = अत्यन्त गतिशील होते हुए। अकर्मण्य होकर खाट पर लेटे-लेटे जीना कोई जीना नहीं है। ४. (पर्वतेन) = [पर्व पूरणे] निरन्तर अपने पूरण के द्वारा-कमियों को दूर करते रहने के द्वारा (मृत्युं तिरः दधताम्) = मृत्यु को अपने से तिरोहित ही रक्खें। प्रतिदिन का यह पूरण मृत्यु को हमारे समीप न आने दे।

    भावार्थ -

    [हम मर्यादा में चलें। पुरुषार्थ से धन कमाएँ। सौ वर्ष तक जीएँ और मृत्यु को अपने से दूर ही रक्खें। -सम्पा०]

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