अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 50
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
ते दे॒वेभ्य॒ आ वृ॑श्चन्ते पा॒पं जी॑वन्ति सर्व॒दा। क्र॒व्याद्यान॒ग्निर॑न्ति॒कादश्व॑ इवानु॒वप॑ते न॒डम् ॥
स्वर सहित पद पाठते । दे॒वेभ्य॑: । आ । वृ॒श्च॒न्ते॒ । पा॒पम् । जी॒व॒न्ति॒ । स॒र्व॒दा । क्र॒व्य॒ऽअत् । यान् । अ॒ग्नि: । अ॒न्ति॒कात् । अश्व॑:ऽइव । अ॒नु॒ऽवप॑ते । न॒डम् ॥२.५०॥
स्वर रहित मन्त्र
ते देवेभ्य आ वृश्चन्ते पापं जीवन्ति सर्वदा। क्रव्याद्यानग्निरन्तिकादश्व इवानुवपते नडम् ॥
स्वर रहित पद पाठते । देवेभ्य: । आ । वृश्चन्ते । पापम् । जीवन्ति । सर्वदा । क्रव्यऽअत् । यान् । अग्नि: । अन्तिकात् । अश्व:ऽइव । अनुऽवपते । नडम् ॥२.५०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 50
विषय - मांसाहार व पापमय जीवन
पदार्थ -
१. (यान्) = जिन पुरुषों को (क्रव्याद् अग्नि:) = मांसभक्षक अग्नि-मांसभक्षण की प्रवृत्ति (अन्तिकात्) = समीप से अनुवपते उस प्रकार छिन्न करनेवाली होती है, जैसेकि (अश्व: नडम्) = एक घोड़ा तृष्णविशेष को काट डालता है। (ते) = वे मांसाहारी पुरुष (देवेभ्यः आवृश्चन्ते) = देवों से कट जाते हैं-देवों से उनका सम्बन्ध नहीं रहता-उन्हें दिव्य प्रवृत्तियाँ छोड़ जाती हैं तथा वे सर्वदा पाप (जीवन्ति) = सदा पापमय जीवनवाले हो जाते हैं।
भावार्थ -
मांसाहार से दिव्य प्रवृत्तियों नष्ट हो जाती हैं और जीवन पापमय हो जाता है।
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