अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
सीसे॒ मलं॑ सादयि॒त्वा शी॑र्ष॒क्तिमु॑प॒बर्ह॑णे। अव्या॒मसि॑क्न्यां मृ॒ष्ट्वा शु॒द्धा भ॑वत य॒ज्ञियाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसीसे॑ । मल॑म् । सा॒द॒यि॒त्वा । शी॒र्ष॒क्तिम् । उ॒प॒ऽबर्ह॑णे । अव्या॑म् । असि॑क्न्याम् । मृ॒ष्ट्वा । शु॒ध्दा: । भ॒व॒त॒ । य॒ज्ञिया॑: ॥२.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
सीसे मलं सादयित्वा शीर्षक्तिमुपबर्हणे। अव्यामसिक्न्यां मृष्ट्वा शुद्धा भवत यज्ञियाः ॥
स्वर रहित पद पाठसीसे । मलम् । सादयित्वा । शीर्षक्तिम् । उपऽबर्हणे । अव्याम् । असिक्न्याम् । मृष्ट्वा । शुध्दा: । भवत । यज्ञिया: ॥२.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 20
विषय - शुद्धाः यज्ञियाः
पदार्थ -
१. (सीसे) = [पिञ् बन्धने, ई गतौ, षोऽतकर्मणि] संसार की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय के हेतुभूत ब्रह्म में (मलम्) = मन की सब मैल को (सादयित्वा) = नष्ट करके तथा (उपबर्हणे) = उपासकों की वद्धि के कारणभूत ब्रह्म में (शीर्षक्तिम) = सब सिरदर्दी को समाप्त करके, (अव्याम्) = उस सर्वरक्षक (असिक्न्याम्) = अजर [जरा से पलित न होनेवाले] प्रभु में (मृष्ट्वा) = अपने को शुद्ध बनाकर (शुद्धाः) = पवित्र व (यज्ञियाः) = यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त (भवत) = हो जाओ।
भावार्थ -
प्रभु का उपासन हमारे मन की मैल को नष्ट करता है। इस उपासना से संसार हमारे लिए सिरदर्द नहीं बना रहता। उस सर्वरक्षक, अजरामर प्रभु का चिन्तन हमें शुद्ध व पवित्र बना देता है।
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