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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 30
    सूक्त - भृगुः देवता - मृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    मृ॒त्योः प॒दं यो॒पय॑न्त॒ एत॒ द्राघी॑य॒ आयुः॑ प्रत॒रं दधा॑नाः। आसी॑ना मृ॒त्युं नु॑दता स॒धस्थेऽथ॑ जी॒वासो॑ वि॒दथ॒मा व॑देम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मृ॒त्यो: । प॒दम् । यो॒पय॑न्त: । आ । इ॒त॒ । द्राघी॑य: ।आयु॑: । प्र॒ऽत॒रम् । दधा॑ना: । आसी॑ना: । मृ॒त्युम् । नु॒द॒त॒ । स॒धऽस्थे॑ । अथ॑ । जी॒वास॑: । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दे॒म॒ ॥२.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मृत्योः पदं योपयन्त एत द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः। आसीना मृत्युं नुदता सधस्थेऽथ जीवासो विदथमा वदेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मृत्यो: । पदम् । योपयन्त: । आ । इत । द्राघीय: ।आयु: । प्रऽतरम् । दधाना: । आसीना: । मृत्युम् । नुदत । सधऽस्थे । अथ । जीवास: । विदथम् । आ । वदेम ॥२.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 30

    पदार्थ -

    १. (मृत्योः पदम्) = मृत्यु के पद को-रोगों के कारणों को (योपयन्त:) = मिटाते हुए (एत) = [आ इत] समन्तात् कर्तव्य-कर्मों में गतिशील होओ। इसप्रकार द्(राधीय:) = दीर्घ व (प्रतरम्) = उत्कृष्ट (आयुः दधाना:) = जीवन को धारण करते हुए होओ। २. (सधस्थे) = प्रभु के साथ मिलकर बैठने के स्थान हृदय में (आसीना:) = बैठे हुए, अर्थात् हृदय में प्रभु का ध्यान करते हुए (मृत्युं नुदत) = मृत्यु को परे धकेल दो। (अथ) = अब (जीवास:) = जीवनीशक्ति से परिपूर्ण हुए-हुए हम (विदथम् आवदेम) = समन्तात् ज्ञान का प्रवचन करें।

    भावार्थ -

    मृत्यु के कारणों को दूर करते हुए हम दीर्घ, उत्कृष्ट जीवन को धारण करें। हृदय में प्रभु का ध्यान करते हुए मृत्यु को दूर करें। जीवनशक्ति से परिपूर्ण होते हुए हम ज्ञान का प्रवचन करें।

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