अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
सूक्त - भृगुः
देवता - मृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
उत्ति॑ष्ठता॒ प्र त॑रता सखा॒योऽश्म॑न्वती न॒दी स्य॑न्दत इ॒यम्। अत्रा॑ जहीत॒ ये अस॒न्नशि॑वाः शि॒वान्त्स्यो॒नानुत्त॑रेमा॒भि वाजा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ति॒ष्ठ॒त॒ । प्र । त॒र॒त॒ । स॒खा॒य॒: । अश्म॑न्ऽवती । न॒दी । स्य॒न्द॒ते॒ । इ॒यम् । अत्र॑ । ज॒ही॒त॒ । ये । अस॑न् । अशि॑वा: । शि॒वान् । स्यो॒नान् । उत् । त॒रे॒म॒ । अ॒भि । वाजा॑न् ॥२.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तिष्ठता प्र तरता सखायोऽश्मन्वती नदी स्यन्दत इयम्। अत्रा जहीत ये असन्नशिवाः शिवान्त्स्योनानुत्तरेमाभि वाजान् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । तिष्ठत । प्र । तरत । सखाय: । अश्मन्ऽवती । नदी । स्यन्दते । इयम् । अत्र । जहीत । ये । असन् । अशिवा: । शिवान् । स्योनान् । उत् । तरेम । अभि । वाजान् ॥२.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
विषय - अशिव-त्याग व शिव-प्राप्ति
पदार्थ -
१. हे (सखायः) = मित्रो! (उत्तिष्ठत) = उठो-आलस्य को छोड़ो। (प्रतरत) = इस नदी को तैरने के लिए यत्नशील होओ। (इयम्) = यह (अश्मन्वती) = पथरीली-प्रलोभन-पाषाणों से परिपूर्ण (नदी) = संसाररूप नदी (स्यन्दते) = बह रही है। २. (ये अशिवा: असन्) = जो भी अकल्याणकर पदार्थ हों, (अत्रा जहीत) = उन्हें यहाँ ही छोड़ जाओ। (स्योनान्) = सुखकर (शिवान्) = कल्याण के साधक (वाजान् अभि) = बलों का लक्ष्य करके (उत्तरेम) = हम नदी को पार कर जाएँ। अशुभ कर्मों का बोझ हमें इस नदी में डुबोएगा ही-परस्पर लड़ते हुए भी हम इस नदी में डूबेंगे ही, अतः सखा बनकर तथा अशिवों को छोड़कर हम इस नदी को तैरने का प्रयत्न करें।
भावार्थ -
इस संसार-नदी को तैरने के लिए आवश्यक है कि [क] आलस्य को छोड़ा जाए [ख] मित्रभाव से सबके साथ वर्ता जाए [ग] अशुभों को छोड़ने का प्रयत्न किया जाए।
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