अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 47
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
इ॒ममिन्द्रं॒ वह्निं॒ पप्रि॑म॒न्वार॑भध्वं॒ स वो॒ निर्व॑क्षद्दुरि॒ताद॑व॒द्यात्। तेनाप॑ हत॒ शरु॑मा॒पत॑न्तं॒ तेन॑ रु॒द्रस्य॒ परि॑ पाता॒स्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । इन्द्र॑म् । वह्नि॑म् । पप्रि॑म् । अ॒नु॒ऽआर॑भध्वम् । स: । व॒: । नि: । व॒क्ष॒त् । दु॒:ऽइ॒तात्। अ॒व॒द्यात् । तेन॑ । अप॑ । ह॒त॒ । शरु॑म् । आ॒ऽपत॑न्तम् । तेन॑ । रु॒द्रस्य॑ । परि॑ । पा॒त॒ । अ॒स्ताम्॥२.४७॥
स्वर रहित मन्त्र
इममिन्द्रं वह्निं पप्रिमन्वारभध्वं स वो निर्वक्षद्दुरितादवद्यात्। तेनाप हत शरुमापतन्तं तेन रुद्रस्य परि पातास्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । इन्द्रम् । वह्निम् । पप्रिम् । अनुऽआरभध्वम् । स: । व: । नि: । वक्षत् । दु:ऽइतात्। अवद्यात् । तेन । अप । हत । शरुम् । आऽपतन्तम् । तेन । रुद्रस्य । परि । पात । अस्ताम्॥२.४७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 47
विषय - 'पप्रि-वह्नि' प्रभु
पदार्थ -
१.(इमन) = इस (इन्द्रम) = परमैश्वर्यशाली, (वहिम्) = लक्ष्य-स्थान पर पहुँचानेवाले [वह प्रापणे] (पप्रिम्) = सबका पालन व पूरण करनेवाले प्रभु के (अनु) = साथ (आरभध्वम्) = प्रत्येक कार्य का प्रारम्भ करो-प्रभुस्मरणपूर्वक प्रत्येक कार्य को करो। (सः) = वे प्रभु (वः) = तुम्हें (दुरितात्) = दुराचरण से व (अवद्यात) = सब निन्द्य कर्मों से (निर्वक्षत्) = दूर करेंगे। (तेन) = उस प्रभु के साथ, अर्थात् प्रभु की उपासना करते हुए तुमपर (आपतन्तं शरूम्) = गिरता हुआ अस्त्र (अपहत) = दूर नष्ट होता है। (तेन) = उस प्रभु के साथ होते हुए तुम (रुद्रस्य अस्ताम्) = [अस्तां-An arrow] रुद्र से फेंके गये बाण से (परिपात) = चारों ओर से बचाओ। ऐसा प्रयत्न करो कि यह रुद्र का बाण तुमपर न पड़े। प्रभु की उपासना हमें अन्त:शत्रुओं के आक्रमण व आधिदैविक आपत्तियों से बचाएगी।
भावार्थ -
प्रभु हमें लक्ष्य-स्थान पर पहुँचानेवाले हैं, वे हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं। प्रभु हमें पापों से बचाते हैं। प्रभु की उपासना हमें आक्रमणकारी शत्रुओं से बचाती है तथा हम प्रभु के क्रोध-पात्र नहीं बनते।
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