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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 54
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    इ॒षीकां॒ जर॑तीमि॒ष्ट्वा ति॒ल्पिञ्जं॒ दण्ड॑नं न॒डम्। तमिन्द्र॑ इ॒ध्मं कृ॒त्वा य॒मस्या॒ग्निं नि॒राद॑धौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒षीका॑म् । जर॑तीम‌् । इ॒ष्ट्वा । त‍ि॒ल्पिञ्ज॑म् । दण्ड॑नम् । न॒डम् । तम् । इन्द्र॑: । इ॒ध्मम् । कृ॒त्वा । य॒मस्य॑ । अ॒ग्निम् । नि॒:ऽआद॑धौ ॥२.५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इषीकां जरतीमिष्ट्वा तिल्पिञ्जं दण्डनं नडम्। तमिन्द्र इध्मं कृत्वा यमस्याग्निं निरादधौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इषीकाम् । जरतीम‌् । इष्ट्वा । त‍िल्पिञ्जम् । दण्डनम् । नडम् । तम् । इन्द्र: । इध्मम् । कृत्वा । यमस्य । अग्निम् । नि:ऽआदधौ ॥२.५४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 54

    पदार्थ -

    १. (जरतीम्) = [जरिता गरिता स्तोता] उस प्रभु का स्तवन करती हुई [सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति, ऋचो अक्षरे परमे व्योमन] (इषीकाम्) = [to urge, impel] कर्तव्य-कर्मों की प्रेरणा देती हुई वेदवाणी को (इष्ट्वा) = अपने साथ संगत करके [यज् संगतिकरणे], तथा (तिल्पिजम्) = [तिल् स्निग्धीभावे, पिजि निकेतने] स्नेह के निकेतन-प्रेमपुञ्ज-प्राणिमात्र के प्रति दयाल, (दण्डनम्) = मार्गभ्रष्ट होने पर दण्ड देनेवाले-न्यायकारी (नडम्) = [नड् गहने] गहन व अचिन्त्यस्वरूप प्रभु को (इष्ट्वा) = पूजकर 'यज देवपूजायाम्' (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय उपासक (तम्) = उस प्रभु को ही (इध्मं कृत्वा) = दीस बनाकर-प्रभु की उपासना से प्रभु के प्रकाश को देखकर, (यमस्य अग्निं निरादधौ) = यम की अग्नि को अपने से दूर स्थापित करता है, अर्थात् इसे उस नियन्ता प्रभु के दण्ड से दण्डित नहीं होना पड़ता। इसके लिए प्रभु का रूप 'शिव' ही होता है-'रुद्र' रूप नहीं।

    भावार्थ -

    हम वेदवाणी का अध्ययन करें तथा उस 'न्यायकारी, दयालु' प्रभु का स्मरण करें। ऐसा करने पर हमें प्रभु का प्रकाश प्राप्त होगा और हमें मार्गभंश के कारण होनेवाले कष्ट न उठाने पड़ेंगे।

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