अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 55
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
प्र॒त्यञ्च॑म॒र्कं प्र॑त्यर्पयि॒त्वा प्र॑वि॒द्वान्पन्थां॒ वि ह्यावि॒वेश॑। परा॒मीषा॒मसू॑न्दि॒देश॑ दी॒र्घेणायु॑षा॒ समि॒मान्त्सृ॑जामि ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒त्यञ्च॑म् । अ॒र्कम् । प्र॒ति॒ऽअ॒र्प॒यि॒त्वा । प्र॒ऽवि॒द्वान् । पन्था॑म् । वि । हि । आ॒ऽवि॒वेश॑ । परा॑ । अ॒मीषा॑म् । असू॑न् । दि॒देश॑ । दी॒र्घेण॑ । आयु॑षा । सम् । इ॒मान् । सृ॒जा॒मि॒ ॥२.५५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यञ्चमर्कं प्रत्यर्पयित्वा प्रविद्वान्पन्थां वि ह्याविवेश। परामीषामसून्दिदेश दीर्घेणायुषा समिमान्त्सृजामि ॥
स्वर रहित पद पाठप्रत्यञ्चम् । अर्कम् । प्रतिऽअर्पयित्वा । प्रऽविद्वान् । पन्थाम् । वि । हि । आऽविवेश । परा । अमीषाम् । असून् । दिदेश । दीर्घेण । आयुषा । सम् । इमान् । सृजामि ॥२.५५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 55
विषय - अर्पण
पदार्थ -
१. (प्रत्यञ्चम्) = प्रत्यग-अन्दर हृदय में विद्यमान (अर्कम प्रति) = पूजनीय व सुर्यसम दीप्त प्रभ के प्रति (अर्पयित्वा) = अपना अर्पण करके (प्रविद्वान्) = यह प्रकृष्ट ज्ञानी पुरुष (हि) = निश्चय से (पन्थां वि आविवेश) = मार्ग पर विशेषरूप से प्रविष्ट होता है-यह कभी मार्गभ्रष्ट नहीं होता। २. इसप्रकार प्रभु के प्रति अर्पण करके, ज्ञानप्रकाश को प्राप्त करनेवाला और सदा सुमार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति (अमीषाम्) = उन शत्रुभूत काम-क्रोध आदि के (असून परादिदेश) = प्राणों को परादिष्ट करता है-नष्ट करता है। प्रभु कहते हैं कि (इमान्) = इन अपने इन्द्रिय, मन, बुद्धि-साधनों को शत्रुओं का शिकार न होने देनेवाले उपासकों को (दीर्घेण आयुषा संसृजामि) = दीर्घजीवन से युक्त करता हूँ।
भावार्थ -
हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें, ज्ञानी बनकर सुमार्ग पर चलें। शत्रुभूत काम क्रोध को विनष्ट करें तब प्रभु हमें दीर्घजीवन से संयुक्त करेंगे।
अपने जीवन को प्रभु उपासन द्वारा नियन्त्रित करनेवाला 'यम' अगले सूक्त का ऋषि है। यह अपने गृहस्थ-जीवन को स्वर्ग बनाने का प्रयत्न करता है। स्वर्ग बनाने के लिए यह भी आवश्यक है कि भोजन सात्त्विक हो-वहाँ मांस आदि का प्रवेश न हो। सायण लिखते हैं कि 'स्वर्गीदनात् क्रव्याद रक्षश्च पिशाचं च परिहरति' स्वर्ग को प्राप्त करानेवाले ओदन से 'नव्या अग्नि' को दूर रखता है-मांसभक्षण का प्रवेश नहीं होने देता। इस सूक्त का देवता [विषय] 'स्वर्गौदन अग्नि' ही है।
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