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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 14
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    अ॒यं ग्रावा॑ पृ॒थुबु॑ध्नो वयो॒धाः पू॒तः प॒वित्रै॒रप॑ हन्तु॒ रक्षः॑। आ रो॑ह॒ चर्म॒ महि॒ शर्म॑ यच्छ॒ मा दंप॑ती॒ पौत्र॑म॒घं नि गा॑ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ग्रावा॑ । पृ॒थुऽबु॑ध्न: । व॒य॒:ऽधा: । पू॒त: । प॒वित्रै॑: । अप॑ । ह॒न्तु॒ । रक्ष॑: । आ । रो॒ह॒ । चर्म॑ । महि॑ । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । मा । दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । पौत्र॑म् । अ॒घम् । नि । गा॒ता॒म् ॥३.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं ग्रावा पृथुबुध्नो वयोधाः पूतः पवित्रैरप हन्तु रक्षः। आ रोह चर्म महि शर्म यच्छ मा दंपती पौत्रमघं नि गाताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ग्रावा । पृथुऽबुध्न: । वय:ऽधा: । पूत: । पवित्रै: । अप । हन्तु । रक्ष: । आ । रोह । चर्म । महि । शर्म । यच्छ । मा । दंपती इति दम्ऽपती । पौत्रम् । अघम् । नि । गाताम् ॥३.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 14

    भावार्थ -
    (अयं) यह (ग्रावा) मूसल, ऊखल (पृथुबुध्नः) विशाल आधार वाला (वयोधाः) अन्नों का धारण करने वाला (पवित्रैः) पवित्र करने हारे उपायों से स्वयं (पूतः) पवित्र होकर (रक्षः) अन्न के ऊपर के रक्षा करने वाले आवरण छिलकों को (अपहन्तु) कूट कूट कर पृथक् कर दे। हे ऊखल ! तू (चर्म आ रोह) तू चर्म पर विराज और (महि शर्म यच्छ) बड़ा भारी सुख प्रदान कर। (दम्पती) स्त्री पुरुष (पौत्रम् अधम्) अपने पुत्रों के हत्या आदि पाप को (मा नि गाताम्) प्राप्त न हों। राजा के पक्ष में—(अयं ग्रावा) यह राजा (पृथुबुध्नः) विशाल आधार से युक्त (वयोधाः) बल और आयु को धारण करने वाला, (पवित्रैः पूतः) शुद्धाचरणों से स्वयं पवित्र होकर (रक्षः अप हन्तु) राक्षसों का नाश करे। हे राजन् (चर्म आ रोह) आसन पर विराज। (महि शर्म यच्छ) बड़ा सुख प्रजा को दे। कि (दम्पती पौत्रं अघं मा निगाताम्) पति, पत्नी पुत्र सम्बन्धी हत्या को न करें या पुत्र के किये हत्यादि पाप के पात्र न हों, वे पुत्रों के हाथों से न मारे जांय। अर्थात् राजा गृहस्थों का प्रबन्ध करे कि मा बाप सन्तानों को और सन्तानें अपने मा बाप पर अत्याचार न करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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