अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 48
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
न किल्बि॑ष॒मत्र॒ नाधा॒रो अस्ति॒ न यन्मि॒त्रैः स॒मम॑मान॒ एति॑। अनू॑नं॒ पात्रं॒ निहि॑तं न ए॒तत्प॒क्तारं॑ प॒क्वः पुन॒रा वि॑शाति ॥
स्वर सहित पद पाठन । किल्बि॑षम् । अत्र॑ । न । आ॒ऽधा॒र: । अस्ति॑ । न । यत् । मि॒त्रै: । स॒म्ऽअम॑मान: । एति॑ । अनू॑नम् । पात्र॑म् । निऽहि॑तम् । न॒: । ए॒तत्। प॒क्तार॑म् । प॒क्व: । पुन॑: । आ । वि॒शा॒ति॒ ॥३.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
न किल्बिषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्रैः समममान एति। अनूनं पात्रं निहितं न एतत्पक्तारं पक्वः पुनरा विशाति ॥
स्वर रहित पद पाठन । किल्बिषम् । अत्र । न । आऽधार: । अस्ति । न । यत् । मित्रै: । सम्ऽअममान: । एति । अनूनम् । पात्रम् । निऽहितम् । न: । एतत्। पक्तारम् । पक्व: । पुन: । आ । विशाति ॥३.४८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 48
विषय - स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ -
(अत्र) यहां इस कार्य में (न किल्विषम्) कोई पाप नहीं और (न आधारः) और कोई आधार भी नहीं अर्थात् कोई विशेष वाधक कारण भी नहीं है कि (यत्) जब राजा (मित्रैः समम्) अपने मित्रों सहित (मानः न एति) मान रहित होकर नहीं आता प्रत्युत बड़े भारी मान सहित आता है। अथवा—(यत् मित्रैः सम्-अममानः न एति) यह कोई पाप = आशंका या रुकावट नहीं कि राजा अपने मित्रों की सहायता से युक्त होकर नहीं रहता। अथवा—(यत् मित्रैः सम-मानः न एति) जब मित्रों के समान मान वाला होकर नहीं आता प्रत्युत उनसे अधिक मानवाण् होकर प्रकट होता है। प्रत्युत इसका कारण यह है कि (नः) हम प्रजाओं का तो यह राजा ही (अनूनं पात्रम्) अनून पात्र अर्थात् पालन करने में समर्थ एवं शक्तिशाली है कि जिसमें कोई त्रुटि नहीं है इसलिये वह अन्यों की सहायता की अपेक्षा नहीं करता। (पक्वः) परिपक्व भात जिस प्रकार (पक्तारम् आविशाति) पकाने वाले के भीतर ही प्रवेश कर जाता है उसी प्रकार (पक्वः) परिपक्व वीर्यवान् भी (पक्तारं) उसको पकाने, दृढ़ करने वाले पुरुषों के पास ही (आविशति) प्रविष्ट हो कर रहता है। इसी प्रकार परिपक्व ब्रह्मचर्यादि बल भी अपने परिपाक करने वाले के भीतर ही रहता है।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘सममान’, ‘संनममान’, ‘सनममान’ ‘संमममान’, इति बहुधा पाठाः। तत्र ‘सम्-अनमानः’ इतिपद पाठः। ‘समम अमानः’ इत्यपि पदच्छेदः सम्भवः। ‘सम-मान’ इति वा न विरुद्धः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
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