Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 55
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    प्राच्यै॑ त्वा दि॒शे॒ग्नयेऽधि॑पतयेऽसि॒ताय॑ रक्षि॒त्र आ॑दि॒त्यायेषु॑मते। ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑। दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्राच्यै॑ । त्वा॒ । दि॒शे । अ॒ग्नये॑ । अधि॑ऽपतये । अ॒सि॒ताय॑ । र॒क्षि॒त्रे । आ॒दि॒त्याय॑ । इषु॑ऽमते । ए॒तम् । परि॑। द॒द्म॒: । तम् । न॒: । गो॒पा॒य॒त॒ ।आ । अ॒स्माक॑म् । आऽए॑तो: । दि॒ष्टम् । न॒: । अत्र॑ । ज॒रसे॑ । नि । ने॒ष॒त् । ज॒रा । मृ॒त्यवे॑ । परि॑ । न॒:। द॒दा॒तु॒ । अथ॑ । प॒क्वेन॑ । स॒ह । सम् । भ॒वे॒म॒ ॥३.५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राच्यै त्वा दिशेग्नयेऽधिपतयेऽसिताय रक्षित्र आदित्यायेषुमते। एतं परि दद्मस्तं नो गोपायतास्माकमैतोः। दिष्टं नो अत्र जरसे नि नेषज्जरा मृत्यवे परि णो ददात्वथ पक्वेन सह सं भवेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राच्यै । त्वा । दिशे । अग्नये । अधिऽपतये । असिताय । रक्षित्रे । आदित्याय । इषुऽमते । एतम् । परि। दद्म: । तम् । न: । गोपायत ।आ । अस्माकम् । आऽएतो: । दिष्टम् । न: । अत्र । जरसे । नि । नेषत् । जरा । मृत्यवे । परि । न:। ददातु । अथ । पक्वेन । सह । सम् । भवेम ॥३.५५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 55

    भावार्थ -
    हे परमात्मन् और हे राजन् ! (प्राच्यै) प्राची = प्रकृष्ट, अति उत्तम, ज्ञान प्राप्त कराने वाले (दिशे) समस्त पदार्थों को और कर्मों का उपदेश करने वाले प्राची दिशा के समान प्रकाश से युक्त (त्वा) तुझे (अग्नयेऽधिपतये) अग्नि के समान दुष्ट शत्रु के सन्तापकारी, अधिपति स्वरूप तुझे (असिताय रक्षित्रे) स्वयं बन्धन रहित, रक्षा करनेहारे तुझे और (आदित्याय) आदित्य, सूर्य के समान चारों दिशाओं में प्रखर किरणों के समान (इषुमते) अपने तीक्ष्ण बाणों से चतुर्दिगन्त विजयी एवं समस्त लोगों को (इषुमते) प्रेरणा करने वाले बल को धारण करने वाले तुझे (एतम्) हम इस राष्ट्र और इस देह का (परिदद्मः) प्रदान करते हैं, सौंपते हैं। (नः) हमारे (तम्) इस धरोहर को तबतक (गोपायत) आप लोग रक्षा करो (आ अस्माकम् एतोः) भगवन् ! जब तक हम आपके पास न पहुंच जांय। राजन् जब तक हम स्वयं इसको प्राप्त न कर लें, जब तक हम इसे स्वयं सम्भाल न सकें। (अत्र) इस लोक में (न:) हमारे (दिष्टम्) निश्चित प्रारब्ध जीवन को तू (जरसे) वृद्ध अवस्था तक (निनेषत्) नियम से पहुंचा। (जरा) बुढोती, वृद्ध अवस्था ही (नः) हमें (मृत्यवे) मृत्यु को (परिददातु) सौंप दे। (अथ) और उसके पश्चात् हम (पक्वेन सह) परिपक्व ब्रह्मज्ञान के साथ (सम् भवेम) पुनः अगले जीवन में उत्पन्न हो। अथवा (अथ पक्वेन) और परिपक्व वीर्य से (सह) हम स्त्री पुरुष मिल कर (सं भवेम) सन्तान उत्पन्न करें। मृत्यु के पश्चात् उत्पन्न होने अर्थात् पुनर्जन्म होने का वेद ने यहां स्पष्ट उपदेश किया है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top