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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 23
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    जनि॑त्रीव॒ प्रति॑ हर्यासि सू॒नुं सं त्वा॑ दधामि पृथि॒वीं पृ॑थि॒व्या। उ॒खा कु॒म्भी वेद्यां॒ मा व्य॑थिष्ठा यज्ञायु॒धैराज्ये॒नाति॑षक्ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जनि॑त्रीऽइव । प्रति॑ । ह॒र्या॒सि॒ । सू॒नुम् । सम् । त्वा॒ । द॒धा॒मि॒ । पृ॒थि॒वीम् । पृ॒थि॒व्या । उ॒खा । कु॒म्भी । वेद्या॑म् । मा । व्य॒थि॒ष्ठा॒: । य॒ज्ञ॒ऽआ॒यु॒धै: । आज्ये॑न । अति॑ऽसक्ता ॥३.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनित्रीव प्रति हर्यासि सूनुं सं त्वा दधामि पृथिवीं पृथिव्या। उखा कुम्भी वेद्यां मा व्यथिष्ठा यज्ञायुधैराज्येनातिषक्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जनित्रीऽइव । प्रति । हर्यासि । सूनुम् । सम् । त्वा । दधामि । पृथिवीम् । पृथिव्या । उखा । कुम्भी । वेद्याम् । मा । व्यथिष्ठा: । यज्ञऽआयुधै: । आज्येन । अतिऽसक्ता ॥३.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 23

    भावार्थ -
    हे पृथिवि ! तू (जनित्री सूनुम् इव) माता जिस प्रकार पुत्र को प्यार से अपने गोद में ले लेती है उसी प्रकार तू मुझे (प्रति हर्यासि) प्रेम करती है (वा) तुझ (पृथिवीम्) पृथिवी को (पृथिव्या) पृथिवी से ही (संदधामि) जोड़ देता हूं तू (उखा) हांडी या उखा रूप में या (कुम्भी) कुम्भी, घड़े, मटके आदि के रूप में होकर भी (वेद्याम्) वेदी में (मा व्यथिष्ठाः) खेद को मत प्राप्त हो। वहां तू (यज्ञायुधैः) यज्ञ के उपकरणों द्वारा (आज्येन) घृत से (अतिषक्ता) युक्त होकर रहती है। स्वर्गमय राज्य की सिद्धि के लिये पृथिवी या राष्ट्र को स्वर्गौदन से उपमा देने के लिये उखा और कुम्भी के रूप में पृथ्वी का वर्णन किया है अर्थात् जैसे हंडे में अन्न तैयार होता है उसी प्रकार पृथ्वी में अन्न तैयार होता है, इत्यादि।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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