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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 50
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    सम॒ग्नयः॑ विदुर॒न्यो अ॒न्यं य ओष॑धीः॒ सच॑ते॒ यश्च॒ सिन्धू॑न्। याव॑न्तो दे॒वा दि॒व्या॒तप॑न्ति॒ हिर॑ण्यं॒ ज्योतिः॒ पच॑तो बभूव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । अ॒ग्नय॑:। वि॒दु॒: । अ॒न्य: । अ॒न्यम् । य: । ओष॑धी:। सच॑ते । य: । च॒ । सिन्धू॑न् । याव॑न्त:। दे॒वा: । दि॒वि । आ॒ऽतप॑न्ति । हिर॑ण्यम् । ज्योति॑: ।‍ पच॑त: । ब॒भू॒व॒ ॥३.५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समग्नयः विदुरन्यो अन्यं य ओषधीः सचते यश्च सिन्धून्। यावन्तो देवा दिव्यातपन्ति हिरण्यं ज्योतिः पचतो बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । अग्नय:। विदु: । अन्य: । अन्यम् । य: । ओषधी:। सचते । य: । च । सिन्धून् । यावन्त:। देवा: । दिवि । आऽतपन्ति । हिरण्यम् । ज्योति: ।‍ पचत: । बभूव ॥३.५०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 50

    भावार्थ -
    (अग्नयः) श्रग्नि के समान ज्ञान से प्रकाशमान विद्वान् पुरुष (अन्यः अन्यम्) एक दूसरे को (संविदुः) भली प्रकार जानें, उनमें से (यः) जो कोई (ओषधीः सचते) ओषधियों को एकत्र करता अर्थात् वैद्य का कार्य करता है और (यः च) जो कोई (सिन्धून्) सिन्धुओं, नदियों, समुद्रों को (सचते) प्राप्त करता है, उन पर व्यापार आदि करता या उनके तटपर तपस्या करता है वे भी एक दूसरे को भली प्रकार जानें (यावन्तः) जितने भी (देवाः) प्रकाशमान सूर्य (दिवि) आकाश में (आतपन्ति) प्रकाशित होते हैं उनके समान ही जो विद्वान् ज्ञान में प्रकाशित होते हैं उनको और (पचतः) अपने वीर्य, सामर्थ्य को परिपक्व करने हारे तपस्वी ब्रह्मचारी का (हिरण्यं ज्योतिः) सुवर्ण के समान उज्जवल तेज (बभूव) हो जाता है। इसी प्रकार (अग्नयः) राजा लोग भी परस्पर एक दूसरे को जाना करें उनमें एक (ओषधीः) प्रजाओं को संगठित करते और दूसरे (सिन्धून्) वेगवान् सैनिकों को संग्रह करते हैं। सूर्यों के समान जो राष्ट्र विद्वान् सामर्थ्य को परिपक्व करते हैं उसके पास सुवर्ण आदि वैभव बहुत हो जाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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