अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 31
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
प्र य॑च्छ॒ पर्शुं॑ त्व॒रया ह॑रौ॒षमहिं॑सन्त॒ ओष॑धीर्दान्तु॒ पर्व॑न्। यासां॒ सोमः॒ परि॑ रा॒ज्यं ब॒भूवाम॑न्युता नो वी॒रुधो॑ भवन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । य॒च्छ॒ । पर्शु॑म् । त्व॒रय॑ । आ । ह॒र॒ । ओ॒षम् । अहिं॑सन्त: । ओष॑धी: । दा॒न्तु॒ । पर्व॑न् । यासा॑म् । सोम॑: । परि॑ । रा॒ज्य᳡म् । ब॒भूव॑ । अम॑न्युता: । न॒: । वी॒रुध॑: । भ॒व॒न्तु॒ ॥३.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यच्छ पर्शुं त्वरया हरौषमहिंसन्त ओषधीर्दान्तु पर्वन्। यासां सोमः परि राज्यं बभूवामन्युता नो वीरुधो भवन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यच्छ । पर्शुम् । त्वरय । आ । हर । ओषम् । अहिंसन्त: । ओषधी: । दान्तु । पर्वन् । यासाम् । सोम: । परि । राज्यम् । बभूव । अमन्युता: । न: । वीरुध: । भवन्तु ॥३.३१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 31
विषय - स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ -
शान्ति और सुख से युक्त राज्य सम्पादन करने के लिये ओषधियों के दृष्टान्त से दूसरा उपाय उपदेश करते हैं। हे राजन् (पर्शुम्) परशु-फरसा (प्र यच्छ) मजबूती से पकड़ और (त्वरय) शीघ्रता कर, काल को व्यर्थ मत गवां। (ओषम् हर) शीघ्र ले आ। लोग जिस प्रकार (ओषधीः) ओषधियों को (अहिंसन्तः) उनका मूल नाश न करते हुए (पर्वन्) जोड़ पर से काट लेते हैं उसी प्रकार तेरे वीर भी (ओषधीः) प्रजा को सन्ताप देने वालों के मूलों की रक्षा करते हुए या प्रजा को (अहिंसन्त) नाश न करते हुए उनको ही (पर्वन्) पोरु पोरु पर मर्म को (दान्तु) काटें जिसका परिणाम यह होगा कि (यासाम्) जिन प्रजाओं के ओषधियों के समान ही (राज्यं परि) राज्य के ऊपर (सोमः) सोमलता के समान वीर्यवान् या सोम, चन्द्र के समान, आल्हादकारी, प्रजा रंजन में दक्ष राजा (परि बभूव) राज्य करता है वे (वीरुधः) लताओं के समान नाना प्रकार की व्यवस्थाओं से रुद्व या व्यवस्थित प्रजाएं (नः) हमारे प्रति (अमन्युता) मन्यु = क्रोध से रहित (भवन्तु) हों।
टिप्पणी -
‘परशुम्’ इति क्वचित् (प्र०) ‘त्वयाहान्त्वहिंस’ (तृ०) ‘सोमेयासां’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
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