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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 46
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    स॒त्याय॑ च॒ तप॑से दे॒वता॑भ्यो नि॒धिं शे॑व॒धिं परि॑ दद्म ए॒तम्। मा नो॑ द्यू॒तेऽव॑ गा॒न्मा समि॑त्यां॒ मा स्मा॒न्यस्मा॒ उत्सृ॑जता पु॒रा मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्याय॑ । च॒ । तप॑से । दे॒वता॑भ्य: । नि॒ऽधिम् । शे॒व॒ऽधिम् । परि॑ । द॒द्म॒: । ए॒तम् । मा । न॒: । द्यू॒ते । अव॑ । गा॒त् । मा । सम्ऽइ॑त्याम् । मा । स्म॒ । अ॒न्यस्मै॑ । उत् । सृ॒ज॒त॒ । पु॒रा । मत् ॥३.४६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्याय च तपसे देवताभ्यो निधिं शेवधिं परि दद्म एतम्। मा नो द्यूतेऽव गान्मा समित्यां मा स्मान्यस्मा उत्सृजता पुरा मत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्याय । च । तपसे । देवताभ्य: । निऽधिम् । शेवऽधिम् । परि । दद्म: । एतम् । मा । न: । द्यूते । अव । गात् । मा । सम्ऽइत्याम् । मा । स्म । अन्यस्मै । उत् । सृजत । पुरा । मत् ॥३.४६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 46

    भावार्थ -
    हम राष्ट्रवासी लोग (निधिम्) पृथ्वी और पृथ्वी से प्राप्त अन्य नाना द्रव्य रूप (शेवधिम्) खजानों को (सत्याय) सत्य और (तपसे) तप के कारण (देवताभ्यः) देव सदृश ज्ञानवान्, उत्तम दानशील पुरुषों के हाथों सौंपते हैं। वे इस बात के ज़िम्मेदार हैं कि यह सब ख़जाना, कोष (द्यूते) खेल तमाशे और जूए के शौक या व्यसन में (मा अवगात्) न निकल जाय, न बरबाद होजाय। (मा समित्याम्) आपस के मेलों और गोठों में भी यह राष्ट्र का धन नष्ट न हो। और (पुरः मत्) मेरे सामने, मेरे होते होते हे विद्वान् ‘निधिपाः’, खजाने के रक्षक भद्रपुरुषो ! (अन्यस्मा) और किसी मेरे शत्रु के हाथों इस खजाने को (मा उत्-सृजत) मत दे डालना। राष्ट्र और राष्ट्र का धन त्यागी, तपस्वी, सच्चे पुरुषों के हाथ में रहना चाहिये कि राजा और प्रजावासी लोग उसको जूए, खेलों, तमाशों और मेलों और गोठों में बरबाद न करें और न बेईमानी से शत्रु को ही दें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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