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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 54
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    त॒न्वं स्व॒र्गो ब॑हु॒धा वि च॑क्रे॒ यथा॑ वि॒द आ॒त्मन्न॒न्यव॑र्णाम्। अपा॑जैत्कृ॒ष्णां रुश॑तीं पुना॒नो या लोहि॑नी॒ तां ते॑ अ॒ग्नौ जु॑होमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त॒न्व᳡म् ।स्व॒:ऽग: । ब॒हु॒ऽधा । वि । च॒क्रे॒ । यथा॑ । वि॒दे । आ॒त्मन् । अ॒न्यऽव॑र्णाम् । अप॑ । अ॒जै॒त् । कृ॒ष्णाम् । रुश॑तीम् । पु॒ना॒न: । या । लोहि॑नी । ताम् । ते॒ । अ॒ग्नौ । जु॒हो॒मि॒ ॥३.५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्वं स्वर्गो बहुधा वि चक्रे यथा विद आत्मन्नन्यवर्णाम्। अपाजैत्कृष्णां रुशतीं पुनानो या लोहिनी तां ते अग्नौ जुहोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तन्वम् ।स्व:ऽग: । बहुऽधा । वि । चक्रे । यथा । विदे । आत्मन् । अन्यऽवर्णाम् । अप । अजैत् । कृष्णाम् । रुशतीम् । पुनान: । या । लोहिनी । ताम् । ते । अग्नौ । जुहोमि ॥३.५४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 54

    भावार्थ -
    (स्वर्गः) सुखमय लोक, मोक्ष में जाने वाला पुरुष (तन्वं) अपनी देह को (बहुधा) बहुत प्रकार से (वि चक्रे) विकृत करता है, उसको नाना प्रकार से बदल लेता है। (यथा) जब वह (आत्मन्) अपने आत्मा में उसको (अन्य वर्णाम्) अपने से भिन्न वर्ण को देखता है। तब अपनी वास्तविक (रुशताम्) दीप्तिमती, ज्योतिष्मती प्रज्ञा को (पुनानः) और अधिक पवित्र करता हुआ (कृष्णाम्) अपनी काली, पापमयी तामसी वृत्ति को (अप अजैत्) दूर ही नष्ट कर देता है। और मैं परमत्मा हे जीव ! (ते) तेरी (या) जो (लोहिनी) लाल रंग की राजसी वृत्ति है (ताम्) उसको (अग्नौ) अग्नि, अपने ज्ञानमय तेज में (जुहोमि) स्वाहा करता हूं। राजपतक्ष में—(यथा आत्मन् अन्यवर्णाम् विदे) जब अपने में राजा अपने पद से विपरीत पोशाक को देखता है तब (स्वर्गः) वह उत्तम राष्ट्र को प्राप्त करने वाला राजा (बहुधा तन्वं विचक्रे) बहुत प्रकार से अपने तनु = वस्त्र भूषा को विविध प्रकार से बनाता है। (रुशतीं पुनानः कृष्णाम् अपाजैत्) उजली पोशाक को पहन कर मैली को दूर फेंक देता है। (या लोहिनी ताम् अग्नौ जुहोमि) जो लोहिनी, लाल पोशाक है उसको मैं पुरोहित अग्नि में आहुति देता हूं अर्थात् लाल पोशाक अमि-रूप राजा को प्रदान करता हूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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