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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 11
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्याविवाहः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ऋ॒क्सा॒माभ्या॑म॒भिहि॑तौ॒ गावौ॑ ते साम॒नावि॑तः । श्रोत्रं॑ ते च॒क्रे आ॑स्तां दि॒वि पन्था॑श्चराचा॒रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒क्ऽसा॒माभ्या॑म् । अ॒भिऽहि॑तौ । गावौ॑ । ते॒ । सा॒म॒नौ । इ॒तः॒ । श्रोत्र॑म् । ते॒ । च॒क्रे इति॑ । आ॒स्ता॒म् । दि॒वि । पन्थाः॑ । च॒रा॒च॒रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ ते सामनावितः । श्रोत्रं ते चक्रे आस्तां दिवि पन्थाश्चराचारः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋक्ऽसामाभ्याम् । अभिऽहितौ । गावौ । ते । सामनौ । इतः । श्रोत्रम् । ते । चक्रे इति । आस्ताम् । दिवि । पन्थाः । चराचरः ॥ १०.८५.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते गावौ) तेरे रथ के दो वृषभ (ऋक्सामाभ्याम्-अभिहितौ) ऋक् और साम स्तुति और शान्त भाव कहे हैं (सामनौ-इतः) समान कक्ष में चलते हैं (श्रोत्रं ते चक्रे-आस्ताम्) गृहस्थरथ के दो चक्र दोनों कान हैं, चक्र की भाँति वार्ता चर्चा को एक-दूसरे तक चलाते हैं (दिवि) सुखप्रद प्रजामनवाले गृहस्थाश्रम में (चराचरः पन्थाः) चेतन जड़ पदार्थसङ्ग्रह मार्ग है ॥११॥

    भावार्थ

    गृहस्थ-रथ को स्तुति और शान्त भाव वहन करते हैं, परस्पर एक-दूसरे की स्तुति और शान्ति वर-वधू में होनी चाहिए और परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय को सुनना भी आवश्यक है तथा अन्य सामग्री चेतन और जड़ का संग्रह भी होना चाहिए ॥११॥

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    विषय

    उसके रथ का अलंकारिक रहस्यमय वर्णन।

    भावार्थ

    हे (सूर्ये) उषा के तुल्य कामना वा अनुराग वाली वधू ! (ते गावौ) तेरे मन रूप रथ के दोना बैल (ऋक्सामाभ्यां) ऋग्वेद और सामवेद दोनों से अथवा ऋक् अर्थात् अर्चना, ईश्वरोपासना और सब के प्रति समान व्यवहार वा सब के प्रति शान्तियुक्त वचन इनसे (अभि-हितौ) बंधे हुए (सामनौ) सबके प्रति समान भाव वा बलवान्, एक दूसरे के सहायक होकर (इतः) चलें। (ते श्रोत्रे) तेरे दोनों कान (चक्रे) मन रूप रथ के दो चक्र के तुल्य हों। (दिवि) तेरे कामनामय व्यवहार में (चराचरः पन्थाः) यह समस्त चर और अचर पदार्थ ही मार्ग के तुल्य हैं। तू चित्त से चर और अचर दोनों पदार्थों की यथेष्ट चाहना कर। ऋचा भाग मन्त्र और साम-गायन अर्थात् ज्ञान और उपासना इन दोनों के आश्रय पर वधू का मन रहे, और उन दोनों वर-वधू का चित्त अपने से बड़ों के हित-वचन सदा श्रवण करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    ज्ञान व श्रद्धा का समन्वय

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के मनोमय रथ में जुते हुए ते गावौ वे ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप वृषभ (ऋक्सामाभ्याम्) = विज्ञान व उपासना से (अभिहितौ) = प्रेरित हुए हुए थे, अर्थात् इन्द्रियों के सब व्यवहारों में विज्ञान व उपासना का समन्वय था । इसका प्रत्येक कार्य 'ज्ञान व श्रद्धा' के मेल से हो रहा था। इसीलिए ये इन्द्रिय रूप वृषभ (सामनौ) = बड़ी शान्तिवाले होकर (इतः) = गति कर रहे थे । भाव यह है कि सूर्या ज्ञान व श्रद्धा से सम्पन्न होकर शान्तभाव से सब कार्यों को करती थी । [२] (श्रोत्रम्) = कान ही (ते चक्रे) = रथ के वे चक्र (आस्ताम्) = थे । 'चक्र' गति का प्रतीक है, 'श्रोत्र' सुनने का । सूर्या सुनती थी और उसके अनुसार करती थी और उसका यह (चराचरः) = खूब क्रियाशील [भृशंचरति ] (पन्थाः) = जीवन का मार्ग (दिवि) = ज्ञान में आश्रित था । अर्थात् सूर्या की सब क्रियाएँ ज्ञानपूर्वक होती थीं। वह किसी प्रकार के रूढ़िवाद में फँसी हुई न थी ।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'सूर्या' ज्ञान व श्रद्धा से युक्त होकर शान्तभाव से ज्ञानपूर्वक निरन्तर क्रियामय जीवनवाली है।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते गावौ-ऋक्सामाभ्याम्-अभिहितौ सामनौ-इतः) तव रथस्य वृषभौ-ऋक्सामनी-स्तुतिशान्तभावौ वर्णितौ स्तः प्रथमार्थे तृतीया छान्दसी समानकक्षौ बद्धौ गच्छतः “’सामानौ समानौ” अन्येषामपि दृश्यते’ [अष्टा० ६।३] दीर्घः (श्रोत्रं ते चक्रे-आस्ताम्) गृहस्थरथस्य ते चक्रे श्रोत्रे स्तः “वचनव्यत्ययेनैकचनम्” (दिवि) सुखप्रदे प्रजामनस्के गृहाश्रमे “दिवि प्रजाव्यवहारे” [ऋ० १।३६।३ दयानन्दः] (पन्थाः-चराचरः) चेतनजडपदार्थसङ्ग्रहस्तव मार्गः ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Sun and moon, both equal and glorious, yoked and celebrated by Rks and Samans, move the chariot on the new procession. Let revelation of the Word and infinite Space be the movement towards advancement, and let the path be both tumultuous and restful over the moving and the unmoving world unto the light of heaven.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गृहस्थाश्रमात स्तुती व शांत भाव असला पाहिजे. परस्पर एक दुसऱ्याची स्तुती व शांती वर व वधूमध्ये असली पाहिजे. एकमेकांचा अभिप्राय ऐकणेही आवश्यक आहे व इतर सामग्री चेतन व जडाचा संग्रहही असला पाहिजे. ॥११॥

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