ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 25
ऋषिः - सूर्या सावित्री
देवता - नृर्णा विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
प्रेतो मु॒ञ्चामि॒ नामुत॑: सुब॒द्धाम॒मुत॑स्करम् । यथे॒यमि॑न्द्र मीढ्वः सुपु॒त्रा सु॒भगास॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । इ॒तः । मु॒ञ्चामि॑ । न । अ॒मुतः॑ । सु॒ऽब॒द्धाम् । अ॒मुतः॑ । क॒र॒म् । यथा॑ । इ॒यम् । इ॒न्द्र॒ । मी॒ढ्वः॒ । सु॒ऽपु॒त्रा । सु॒ऽभगा॑ । अस॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रेतो मुञ्चामि नामुत: सुबद्धाममुतस्करम् । यथेयमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रा सुभगासति ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । इतः । मुञ्चामि । न । अमुतः । सुऽबद्धाम् । अमुतः । करम् । यथा । इयम् । इन्द्र । मीढ्वः । सुऽपुत्रा । सुऽभगा । असति ॥ १०.८५.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 25
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इतः प्रमुञ्चामि) हे वधु ! इस पितृकुल से तुझे मैं पुरोहित पृथक् करता हूँ (अमुतः-न) उस पतिगृह से नहीं पृथक् करता हूँ (अमुतः सुबद्धां करम्) वहाँ पति के साथ कल्याणबद्ध सुस्नेहबद्ध तुझे करता हूँ (मीढ्वः-इन्द्र) हे वीर्यसेचक ऐश्वर्यवन् इसके पति ! ( यथा-इयम्) जिससे यह (सुपुत्रा सुभगा-असति) अच्छे पुत्रोंवाली सौभाग्यशाली होवे, वैसे इसको प्रसन्न रखना ॥२५॥
भावार्थ
विवाहसंस्कार हो जाने पर पितृगृह को तो वधू छोड़ देती है, परन्तु पतिगृह में बसती है। वहाँ सौभाग्य को प्राप्त होई अच्छे पुत्रों वाली बनती है ॥२५॥
विषय
स्त्री का वरुणपाश और उससे मोचन। पति का दृढ़तर बन्धन।
भावार्थ
हे कन्ये ! मैं (इतः प्र मुञ्चामि) इस पितृगृह से युक्त करता हूँ। (न अमुतः) उस दूर स्थित पतिगृह से नहीं, प्रत्युत मैं तुझे (अमुतः) उस पतिगृह से तो (सु-बद्धाम् करम्) खूब सुखपूर्वक बद्ध,दृढ प्रेमयुक्त करता हूं। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे स्वामिन् विवाहित पते ! हे (मीढ्वः) वीर्यसेचन करनेहारे पुरुष ! (यथा) जिससे यह वधू (सु-पुत्रा) उत्तम पुत्रवती और (सु-भगा) उत्तम सुखप्रद, ऐश्वर्य और सुख-सौभाग्यवती (असति) हो। इति चतुर्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
सुपुत्रा - सुभगा
पदार्थ
[१] वर कन्यापक्षवालों से कहता है कि मैं आपकी इस कन्या को (इतः) = इधर से (प्रमुञ्चामि) = प्रकर्षेण मुक्त कर रहा हूँ (न अमुतः) = उधर से नहीं। (अमुतः) = उस तरफ तो (सुबद्धां करम्) = मैं इसे सुबद्ध कर रहा हूँ । अर्थात् इस घर से मैं इसे ले जा रहा हूँ। यह अब उस घर में सुबद्ध होकर उसे उत्तम बनाने का ध्यान करेगी। [२] कन्या के पिता वर से कहते हैं कि- हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय (मीढ्वः) = सब सुखों का सेचन करनेवाले युवक बस ऐसा करना कि (यथा इयम्) = जिस से यह (सुपुत्रा) = उत्तम पुत्रोंवाली तथा (सुभगा) = उत्तम ऐश्वर्यवाली असति हो । इसे पुत्र के अभाव में असफलता अनुभव होती रहेगी और धन के अभाव में चिन्ता बनी रहेगी। ऐसा जीवन तो बड़ा दुःखी हो जाएगा। तूने इन्द्र बनना, जितेन्द्रिय बनना । इस से तुम्हारी शक्तियाँ ठीक बनी रहेंगी। इस अपनी पत्नी पर सुखों की वर्षा करना तेरा कर्त्तव्य है । इसमें तूने प्रमाद न करना ।
भावार्थ
भावार्थ- पति जितेन्द्रिय व पत्नी को सुखी रखनेवाला हो। उसे वह सुपुत्रा व सुभगा बनाये ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इतः-प्रमुञ्चामि) हे वधु ! अस्मात् पितृकुलात् त्वां प्रमुञ्चामि (अमुतः-न) ततः पतिगृहात् खलु न पृथक् करोमि विवाहसंस्कारं कृत्वाऽहं पुरोहितः (अमुतः सुबद्धां करम्) अमुत्र तत्र ‘सप्तमीस्थाने पञ्चमी व्यत्ययेन’ पत्या सह शोभनबद्धां त्वामहं करोमि (मीढ्वः-इन्द्र) हे वीर्यसेचक ऐश्वर्यवन्-अस्याः पते ! (यथा-इयं सुपुत्रा सुभगा-असति) एषा वधूः सुपुत्रा शोभनपुत्रवती सौभाग्यवती भवेत् तथा प्रसादयैनाम् ॥२५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I release you from here, the parental home and its discipline, but not from there, the husband’s home, where I establish you duly bound in the new conjugal law and discipline so that, O Indra, O noble husband, she may be the proud and fortunate mother of noble progeny.
मराठी (1)
भावार्थ
विवाह संस्कार झाल्यावर वधू पितृगृहाचा त्याग करून पतिगृही येते. तेथे सौभाग्य प्राप्त करून चांगल्या पुत्रांनी युक्त बनावे. ॥२५॥
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