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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 24
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - नृर्णा विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र त्वा॑ मुञ्चामि॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॒द्येन॒ त्वाब॑ध्नात्सवि॒ता सु॒शेव॑: । ऋ॒तस्य॒ योनौ॑ सुकृ॒तस्य॑ लो॒केऽरि॑ष्टां त्वा स॒ह पत्या॑ दधामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । त्वा॒ । मु॒ञ्चा॒मि॒ । वरु॑णस्य । पाशा॑त् । येन॑ । त्वा॒ । अब॑ध्नात् । स॒वि॒ता । सु॒ऽशेवः॑ । ऋ॒तस्य॑ । योनौ॑ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒के । अरि॑ष्टाम् । त्वा॒ । स॒ह । पत्या॑ । द॒धा॒मि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र त्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशाद्येन त्वाबध्नात्सविता सुशेव: । ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोकेऽरिष्टां त्वा सह पत्या दधामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । त्वा । मुञ्चामि । वरुणस्य । पाशात् । येन । त्वा । अबध्नात् । सविता । सुऽशेवः । ऋतस्य । योनौ । सुऽकृतस्य । लोके । अरिष्टाम् । त्वा । सह । पत्या । दधामि ॥ १०.८५.२४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 24
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्वा) हे वधू ! तुझे (वरुणस्य पाशात् प्र मुञ्चामि) अपने नियम में घेरनेवाले-चलानेवाले परमात्मा के पाश-पारिवारिक स्नेहबन्धन से मैं पुरोहित मुक्त करता हूँ (येन त्वा) जिस स्नेहपाश के द्वारा तुझे (सविता सुशेवः) उत्पन्न करनेवाला पितृवंश उत्तमसुख देनेवाला (अबध्नात्) बाँधता है (ऋतस्य योनौ) यज्ञानुष्ठान में (सुकृतस्य लोके) शुभकर्म के स्थान गृहस्थाश्रम में (त्वा पत्या सह) तुझे पति के साथ (अरिष्टां दधामि) पीड़ारहित स्थिर करता हूँ ॥२४॥

    भावार्थ

    विवाहसंस्कार हो जाने पर वधू को पितृवंश का स्थायी स्नेह-बन्धन त्यागना होता है। शुभकर्मों के करने के लिए पतिगृह है, उसे अच्छा बनाना चाहिए ॥२४॥

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    विषय

    पति द्वारा वधू को पितृपाश से मुक्त कर पतिगृह में स्थापन।

    भावार्थ

    (येन) जिस पाश या प्रेम-बन्धन से (सु-शेवः) सुखदायक (सविता) उत्पादक पिता, (त्वा अबधनात्) तुझे बांधे हुए है हे स्त्रि ! वधु ! मैं (त्वा) तुझे उस (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठ पिता के (पाशात्) प्रेममय पाश से (प्र मुञ्चामि) अच्छी प्रकार छुड़ाता हूँ। मैं (त्वा) तुझे (ऋतस्य) सत्याचरण, यज्ञ और वेद और (सु-कृतस्य) शुभ कर्माचरण के (योनौ) आश्रय गृह और उत्तम (लोके) लोक, पतिगृह में (पत्या सह) पालक पति के साथ (अरिष्टाम्) कभी पीड़ित न होते हुए रूप में (दधामि) स्थापित करता हूं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    संस्कार समाप्ति पर नव विवाहित पति का पत्नी के प्रति कथन

    पदार्थ

    [१] वर वधू से कहता है कि (त्वा) = तुझे (वरुणस्य) = वरुण के (पाशात्) = जाल से, बन्धन से (प्रमुञ्चामि) = प्रकर्षेण छुड़ाता हूँ। पिता वरुण हैं। वरुण 'पाशी' है। पिता भी सन्तानों को नियम पाश में बाँध करके रखते हैं। सन्तान को श्रेष्ठ बनाने के लिये यह आवश्यक ही है। इस वरुण के पाश से वर ही आकर उसे छुड़ाता है (येन) = जिस पाश से (सुशेवः) = उत्तम सुख को प्राप्त करानेवाले (सविता) = प्रेरक पिता ने (त्वा अबध्नात्) = तुझे बाँधा हुआ था। पिता का यह कर्त्तव्य ही है कि वह सन्तानों को नियमपाश में बाँधकर चलें। कन्याओं को सुरक्षित रखना अत्यन्त आवश्यक ही होता है। [२] पिता कहते हैं कि अब इधर पाश से छुड़ाकर मैं तुझे (ऋतस्य योनौ) = ऋत के गृह में अर्थात् जिस घर में सब चीजें ऋतपूर्वक होती हैं, (सुकृतस्य लोके) = पुण्य के लोक में अर्थात् जहाँ सब कार्य शुभ ही होते हैं उस घर में पत्या सह (दधामि) = पति के साथ धारण कराता हूँ। तू अपने पति के साथ घर में प्रेम से रहना, वहाँ ऋत और सुकृत का पालन करना । अपने घर में सब कार्यों को ऋत के साथ करना, ठीक समय व ठीक स्थान पर करना तथा तेरे सब कार्य पुण्य हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - पति कन्या को पितृगृह के सब बन्धनों से छुड़ाकर अपने घर में ले जाता है । वहाँ इसने पिता के उपदेश के अनुसार सब कार्य ऋतपूर्वक सुकृतमय करने हैं।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्वा) हे वधू ! त्वां (वरुणस्य पाशात् प्रमुञ्चामि) स्वनियमे वरयितुः परमात्मनः पाशात् स्नेहपाशात् प्रमुक्तां करोमि पुरोहितोऽहं (येन त्वा सविता सुशेवः-अबध्नात्) येन स्नेहपाशेन त्वामुत्पादयिता जनकः पितृवंशः सुसुखप्रदो बध्नाति (ऋतस्य योनौ) यज्ञे यज्ञानुष्ठाने “यज्ञो वा ऋतस्य योनिः” [श० १।३।४।१६] (सुकृतस्य लोके) शुभकर्मणः स्थाने गृहस्थाश्रमे (त्वा पत्या सह-अरिष्टां दधामि) त्वां पत्या सह हिंसारहितां संस्थापयामि ॥२४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I free you from the bonds of Varuna, discipline of virginity observed in the spirit of justice, freedom and responsibility in the parental home, into which Savita, lord giver of life and natural growth unto maturity, had bound you in full dedication without inhibition, and I settle and establish you with your husband into a new life of natural conjugal order in the world of noble action free from sin, violence and violation of the law.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विवाह संस्कार झाल्यावर वधूला पितृवंशाच्या स्थायी स्नेह-बंधनाचा त्याग करणे आवश्यक आहे. शुभकर्म करण्यासाठी पतिगृह असल्यामुळे ते चांगले बनविले पाहिजे. ॥२४॥

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