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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 43
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्या छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    आ न॑: प्र॒जां ज॑नयतु प्र॒जाप॑तिराजर॒साय॒ सम॑नक्त्वर्य॒मा । अदु॑र्मङ्गलीः पतिलो॒कमा वि॑श॒ शं नो॑ भव द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । प्र॒ऽजाम् । ज॒न॒य॒तु॒ । प्र॒जाऽप॑तिः । आ॒ऽज॒र॒साय॑ । सम् । अ॒न॒क्तु॒ । अ॒र्य॒मा । अदुः॑ऽमङ्गलीः । प॒ति॒ऽलो॒कम् । आ । वि॒श॒ । शम् । नः॒ । भ॒व॒ । द्वि॒ऽपदे॑ । शम् । चतुः॑ऽपदे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ न: प्रजां जनयतु प्रजापतिराजरसाय समनक्त्वर्यमा । अदुर्मङ्गलीः पतिलोकमा विश शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । प्रऽजाम् । जनयतु । प्रजाऽपतिः । आऽजरसाय । सम् । अनक्तु । अर्यमा । अदुःऽमङ्गलीः । पतिऽलोकम् । आ । विश । शम् । नः । भव । द्विऽपदे । शम् । चतुःऽपदे ॥ १०.८५.४३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 43
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (प्रजापतिः) प्रजापालक परमात्मा (नः प्रजाम्) हमारे लिये सन्तान को (आ जनयतु) भलीभाँति उत्पन्न करे (अर्यमा) सूर्य (आजरसाय) जरा अवस्था पर्यन्त (सम् अनक्तु) संयुक्त करे (अदुर्मङ्गलीः) हे वधू ! तू दुर्मङ्गलतारहित सुमङ्गलस्वभाव सहित हुई (पतिलोकम्-आ विश) मुझ पति के कुटुम्ब को प्राप्त हो (नः-द्विपदे शं चतुष्पदे शं भव) हमारे दो पैरवाले मनुष्यमात्र के लिये कल्याणकारी हो, चार पैरवाले पशु के लिये कल्याणकारी हो ॥४३॥

    भावार्थ

    गृहस्थ में पति-पत्नी इस प्रकार सदाचरण से रहें कि सन्तान उत्पन्न हो, दोनों जरापर्यन्त जीवित रहें। पत्नी गृहलक्ष्मी बनी हुई कल्याणसाधक घर में रहे, कुटुम्ब में मेल से रहे, पारिवारिक जन और पशु का हित साधती रहे ॥४३॥

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    विषय

    गृहस्थ को प्रजापति के कर्त्तव्यों का उपदेश। वधू को पतिगृह में प्रवेश करते हुए सबके प्रति शान्तिदायक होने का उपदेश।

    भावार्थ

    (प्रजापतिः) प्रजा पालन करने वाला समर्थ पुरुष (नः) हमारे में से (प्रजाम् आ जनयतु) उत्तम सन्तान उत्पन्न करे। (अर्यमा) दुष्टों का नियन्ता पुरुष (नः प्रजाम्) हमारी प्रजा को (आजरसाय) वृद्धावस्था पर्यन्त सम (अनक्तु) जीवन की रक्षा करे। हे स्त्री ! तू (अदुर्मङ्गली) मंगल या शुभ लक्षणों से विपरीत अशुभ लक्षणों से रहित होकर (पति-लोकम् आ विश) पतिलोक, पति के आत्मा, वा गृह में, वा पति के पिता-माता, भाई-बहिन, चाचा-ताऊ आदि सम्बन्धी जनों के बीच में प्रवेश कर। तू (नः) हमारे (द्वि-पदे) दोपायों, भृत्यादि बन्धु वर्गों के लिये (शम् भव) शान्तिकारक हो और तू (नः चतुः-पदे शम् भव) हमारे चौपायों,गौ, अश्व आदि पशुओं के लिये भी शान्तिकारक हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    'पति' पत्नी से कहता है-

    पदार्थ

    [१] (प्रजापतिः) = सब प्रजाओं का रक्षक प्रभु (नः प्रजां आजनयतु) = हमारी सन्तान को उत्पन्न करे । प्रजापति की कृपा से हमें उत्तम सन्तान प्राप्त हो । (अर्यमा) = हमारे सब शत्रुओं का नियमन करनेवाला प्रभु (आजरसाय) = वृद्धावस्था पर्यन्त (समनक्तु) = हमें संगत करनेवाला हो। 'अर्यमा' शब्द का बोध यहाँ इस रूप में है कि कामादि शत्रुओं का नियमन करते हुए हम दीर्घजीवनवाले हों और हमारा साथ दीर्घकाल तक बना रहे। [३] (अदुर्मंगली:) = सब अमंगलों से रहित हुई हुई तू (पतिलोकं आविश) = इस पतिलोक में प्रवेश कर । तेरे आने से इस घर का मंगल सदा बढ़े ही, किसी प्रकार से घर का अमंगल न हो। तू (नः = हमारे (द्विपदे) = दो पाँववाले सब मनुष्यों के लिये (शं भव) = शान्ति को देनेवाली हो और (चतुष्पदे) = चार पाँववाले गवादि पशुओं के लिये भी तू शम् शान्ति को करनेवाली हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पत्नी वही ठीक है जो कि उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाली हो और जिसके कारण घर में मंगल की वृद्धि हो ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (प्रजापतिः-नः प्रजाम्-आ जनयतु) प्रजापालकः परमात्मास्मभ्यं सन्ततिं समन्तादुत्पादयतु (अर्यमा-आजरसाय सम् अनक्तु) आदित्यः-जरावस्थापर्यन्तमावां संयुक्तौ करोतु न वियोजयतु (अदुर्मङ्गलीः पतिलोकम्-आ विश) हे वधु ! त्वं दुर्मङ्गलभावरहिता सुमङ्गलभावसम्पन्ना सती मम पतिभूतस्य कुटुम्बं वंशं समन्तात् समाविश (नः द्विपदे शं चतुष्पदे शं भव) अस्माकं जनमात्राय पशुमात्राय च कल्याणकारिणी भव ॥४३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May Prajapati bless us with children, may Aryama bring us honour and glory upto the completion of a long full age, may the blessed wife abide with grace in the husband’s home of paradisal bliss, and may there be all round peace and well being for humans and animals all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गृहस्थाश्रमात पती-पत्नी या प्रकारे सदाचरणी असावेत, की संतान उत्तम उत्पन्न व्हावे. दोघेही वृद्धावस्थेपर्यंत जीवंत राहावेत. पत्नी गृहलक्ष्मी बनून कल्याणसाधक बनून घरात राहावी. कुटुंबात एकी असावी. पारिवारिक लोक व पशू यांचे हित साधत राहावे. ॥४३॥

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