ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 22
ऋषिः - सूर्या सावित्री
देवता - नृर्णा विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः
छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
उदी॒र्ष्वातो॑ विश्वावसो॒ नम॑सेळा महे त्वा । अ॒न्यामि॑च्छ प्रफ॒र्व्यं१॒॑ सं जा॒यां पत्या॑ सृज ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ई॒र्ष्व॒ । अतः॑ । वि॒श्व॒व॒सो॒ इति॑ विश्वऽवसो । नम॑सा । ई॒ळा॒म॒हे॒ । त्वा । अ॒न्याम् । इ॒च्छ॒ । प्र॒ऽफ॒र्व्य॑म् । सम् । जा॒याम् । पत्या॑ । सृ॒ज॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीर्ष्वातो विश्वावसो नमसेळा महे त्वा । अन्यामिच्छ प्रफर्व्यं१ सं जायां पत्या सृज ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ईर्ष्व । अतः । विश्ववसो इति विश्वऽवसो । नमसा । ईळामहे । त्वा । अन्याम् । इच्छ । प्रऽफर्व्यम् । सम् । जायाम् । पत्या । सृज ॥ १०.८५.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 22
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(विश्वावसो) हे मेरे सब मन आदि में बसनेवाले पतिदेव ! (त्वा नमसा-ईळामहे) तेरी सत्कार से प्रशंसा करती हूँ (अतः-उत् ईर्ष्व) इस मेरे पितृगृह से उठ (अन्यां प्रफर्व्यम्) भिन्नगोत्रवाली फर-फर करती हुई सुकुमारी (जायाम्-इच्छ) मुझ जाया को चाह (पत्या सं सृज) तुझ पति के साथ मैं अपने को संयुक्त करती हूँ ॥२२॥
भावार्थ
वधू के साथ विवाह करके पति अपने घर में ले जाए, पतिगृह में पहुँच कर वधू पुत्रोत्पत्ति के लिये पति के साथ समागम करने के लिये उससे प्रार्थना करे ॥२२॥
विषय
पुरुष कैसी कन्या को ग्रहण करे ? भिन्नगोत्र में विवाह का उपदेश।
भावार्थ
हे (विश्ववसो) प्रवेश योग्य गृहस्थ रूप वसु के स्वामिन् ! वा उसमें वसने वाले वर ! (त्वा नमसा) तुझे हम बड़े आदर विनय से (ईडामहे) पूजा, सत्कार करते हैं। (अतः उद् ईर्ष्व) इसलिये उठ, तैयार हो। तू (अन्याम्) अपने से भिन्न गोत्र की (प्रफर्व्यम्) खूब पुष्ट अंगों वाली कन्या को (जायाम् इच्छ) अपनी पत्नी रूप से चाह। और उसे (पत्या सांसृज) पति रूप से प्राप्त हो, उससे सम्बन्ध जोड़। उसका स्वयं पालक पति होकर उसे पति से युक्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
विवाहित के लिये प्रार्थना, अविवाहित का ध्यान
पदार्थ
[१] (अतः) = इस विवाहित कन्या को चिन्ता से (उत् ईर्ष्व) = तू ऊपर उठ । तू तो यही प्रार्थना कर कि हे (विश्वावसो) = सबके बसानेवाले प्रभो ! (त्वा) = आपको (नमसा) = नम्रता के साथ (ईडामहे) = स्तुत करते हैं । [२] अब इस विवाहित कन्या के भार को पति की सुबुद्धि पर छोड़कर आप (अन्याम्) = दूसरी (प्रफर्व्यम्) = [प्रफर्वी = a woman having excellent hips or going in a graceful wey] बृहन्नितम्ब-हंसवारणगामिनी युवति कन्या को (इच्छ) = रक्षित करने की इच्छा करिये और उसे (जायाम्) = पत्नी के रूप में पत्ये पति के लिये (सं सृज) = संसृष्ट करिए, पिता को चाहिए कि विवाहित कन्या के विषय में बहुत दखल न देते रहें, प्रभु पर विश्वास रखें कि वे उसके पति को सुबुद्धि देंगे और सब कार्य ठीक से चलेगा। पिता अधिक हस्ताक्षेप करते रहें तो पतिगृहवालों को यह ठीक नहीं लगता और वह युवति भी वस्तु-स्थिति को न समझती हुई छोटी-छोटी बातों से रुष्ट हो पितृमुखापेक्षी बनी रहती है। पति-पत्नी के प्रेम में कमी आ जाती है ।
भावार्थ
भावार्थ- 'विवाहित कन्या के लिये केवल प्रार्थना करना और अविवाहित की पूरी चिन्ता करना' यह माता-पिता का कर्त्तव्य है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(विश्वावसो) हे विश्वस्मिन् वसितः ! वर ! (त्वा नमसा-ईळामहे) त्वां सत्कारेण प्रशंसामः-प्रशंसामि (अतः-उत् ईर्ष्व) त्वमतः-उद्गच्छ (अन्यां-प्रफर्व्यं जायाम्-इच्छ) भिन्नगोत्रां सुकुमारीं फरफरं कुर्वतीं मां जायां वाञ्छ (पत्या संसृज) त्वया पत्या सह संसृजामि सङ्गच्छे ‘पुरुषव्यत्ययेन मध्यमः’ ॥२२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Rise from here and now, O master of the wealth of a new world, we honour and adore you with reverence and homage. Love this bride, this other self of yours, fully mature and cultured, accept, take and join her in the role of husband.
मराठी (1)
भावार्थ
वधूबरोबर विवाह करून पतीने तिला आपल्या घरी न्यावे. पतिगृहात पोचून वधूने पुत्रोत्पत्तीसाठी पतीबरोबर समागम करण्यासाठी त्याची प्रार्थना करावी. ॥२२॥
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